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२१० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ भगवती-आराधना में नहीं। अतः मूलाचार की गाथाओं के आधार पर ही तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त सूत्रों की रचना की है। इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने अन्यत्र भी भगवतीआराधना की बजाय मूलाचार का ही उपयोग किया है।
व्याख्याप्रज्ञप्ति के निम्नलिखित वाक्य में सात प्रकार के विनयों का वर्णन किया गया है-"विणए सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए कायविणए लोगोवयारविणए।" व्या. प्र./२५ / ७/८०२।
तत्त्वार्थसूत्र के चतुर्विध विनयों और व्याख्याप्रज्ञप्ति के सप्तविध विनयों में संख्या की दृष्टि से बहुत अन्तर है। अतः स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति का अनुकरण नहीं किया।
तत्त्वार्थसूत्र के बन्धहेतु , बन्धलक्षण, बन्धप्रकार तथा बन्धप्रकृतियों के मूलोत्तरभेद-प्रतिपादक सूत्रों और मूलाचार की तद्विषयक गाथाओं में शब्द, अर्थ और वर्णनक्रम का घनिष्ठ साम्य है, जिससे यह बात छिपी नहीं रहती कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त सूत्रों की रचना में मूलाचार की गाथाओं का अनुकरण किया है।२१ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
तत्त्वार्थसूत्र – मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। ८/१। मूलाचार - मिच्छादसणअविरदिकसायजोगा हवंति बंधस्स।
आऊसज्झवसाणं हेदवो ते दु णायव्वा॥ १२२५॥ तत्त्वार्थसूत्र – सकषायत्वाजीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।८/२। मूलाचार - जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा।
गेण्हइ पोग्गलदव्वे बंधो सो होदि णायव्वो॥ १२२६॥ तत्त्वार्थसूत्र - प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशास्तद्विधयः। ८/३। मूलाचार - पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधो य चदुविहो होइ।
दुविहो य पयडिबंधो मूलो तह उत्तरो चेव ॥ १२२७॥ तत्त्वार्थसूत्र - आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायाः। ८/४। मूलाचार - णाणस्स दंसणस्स य आवरणं वेदणीय मोहणियं।
आउग-णामा-गोदं तहंतरायं च मूलाओ॥ १२२८॥
२१. षट्खण्डागम-परिशीलन / पृ.१८२-१८३।
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