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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २०९ उक्त तीनों ग्रन्थों के वर्णन में साम्य है, तथापि तत्त्वार्थसूत्रकार ने बाह्यतप-भेदसूचक सूत्र की रचना मूलाचार के आधार पर की है, इससे अनुमान होता है कि आभ्यन्तरतप भेदसूचक सूत्र की रचना में भी उसी का अनुकरण किया है।
__ स्वाध्याय के पाँचभेदों का नामोल्लेख करनेवाले "वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः" (९/२५) इस 'तत्त्वार्थ' के सूत्र की रचना मूलाचार की निम्नगाथा के आधार पर की गई है
परियट्टणाय वायण पडिच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ॥ ३९३॥ . अनुवाद-"परिवर्तन (आम्नाय)१९ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय है, जो स्तुतिमंगलपूर्वक किया जाता है।"
कुन्दकुन्दसाहित्य और भगवती-आराधना में इस प्रकार की गाथा उपलब्ध नहीं है। व्याख्याप्रज्ञप्ति (श० २५/उ०७/सू०८०२) में उक्त पाँच भेदों का वर्णन है,२० किन्तु पूर्व उदाहरण इसी अनुमान पर पहुँचाते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उक्त सूत्र में भी मूलाचार का ही अनुकरण किया है।
मूलाचार की निम्नलिखित गाथा में दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय, तपोविनय और उपचारविनय, ये पाँच प्रकार के विनयतप बतलाये गये हैं
दंसणणाणे विणओ चरित्ततवओवचारिओ विणओ।
पंचविहो खलु विणओ पंचमगइणायगो भणिओ॥ ३६४॥ इनमें से तपोविनय का चारित्रविनय में अन्तर्भाव कर तत्त्वार्थसूत्रकार ने इस गाथा के आधार पर "ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः।" (९ / २३) सूत्र रचा है। इस प्रकार की गाथा भगवती-आराधना में भी है
विणओ पुण पंचविहो णिहिट्ठो णाणदंसणचरित्ते।
तवविणओ य चउत्थो चरिमो उवयारिओ विणओ॥ १११॥ किन्तु हम ऊपर देख चुके हैं कि छह आभ्यन्तरतपों और पंचविध स्वाध्याय के नामों का निर्देश करनेवाली गाथाएँ केवल मूलाचार में हैं, कुन्दकुन्दसाहित्य और
१९. "घोषशुद्धं परिवर्तनमाम्नायः" (सर्वार्थसिद्धि ९/२५) अर्थात् उच्चारण-शुद्धिपूर्वक पाठ को
बार-बार दुहराना आम्नाय है। २०. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / ९ / २५ / पृ.२१७ ।
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