________________
२०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१० / प्र०१
होगा । मूलाचार के प्रथम शती ई० में रचित होने की पुष्टि निम्नलिखित प्रमाणों से होती है
३.२. प्र. -द्वि. श. ई. के तत्त्वार्थसूत्र में मूलाचार का अनुकरण
षट्खण्डागम - परिशीलन के कर्त्ता पं० बालचन्द्र जी शास्त्री ने मूलाचार और तत्त्वार्थसूत्र का तुलनात्मक अध्ययन कर बतलाया है कि तत्त्वार्थसूत्र में व्रतं नियमादि की प्ररूपणा मूलाचार के पंचाचाराधिकार के आधार पर तथा योनि, आयु, लेश्या व बन्ध आदि की प्ररूपणा उसके पर्याप्ति-अधिकार के आधार पर हुई है, क्योंकि दोनों की निरूपणाओं में शब्द, अर्थ और विषयक्रम का अत्यधिक साम्य है (षट्. परि. / पृ.१८२)। कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं
तत्त्वार्थसूत्र
-
मूलाचार अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा । कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छठ्ठे ॥ ३४६ ॥ भग. आरा. अणसण अवमोयरियं चाओ य रसाण वुत्तिपरिसंखा । कायकिलेसो सेज्जा य विवित्ता बाहिरतवो सो ॥ २९० ॥ व्याख्याप्रज्ञ. बाहिरए तवे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - अणसण ऊणोयरिया भिक्खायरिया य रसपरिच्चाओ कायकिलेसो पडिसंलीणया वझो (तवो होई)। २५ / ७ / ८०२।१७
-
Jain Education International
-
अनशनावमौदर्य-वृत्तिपरिसंख्यान - रसपरित्याग - विविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः । (त.सू./९/१९) ।
-
इन उदाहरणों में तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित बाह्यतप के भेदों का साम्य मूलाचारवर्णित भेदों से है । भगवती - आराधना में विविक्तशय्या के साथ आसन शब्द का उल्लेख नहीं है। तथा श्वेताम्बरीय व्याख्याप्रज्ञप्ति में उल्लिखित ऊनोदर, भिक्षाचर्या और प्रतिसंलीनता (विविक्तशयनासन) ये नाम तत्त्वार्थसूत्रगत नामों से विसदृश हैं। इससे निश्चित होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने उपर्युक्त सूत्र की रचना में मूलाचार का अनुकरण किया है। तत्त्वार्थसूत्र – प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् । ९ / २० । मूलाचार – पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं ।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो ॥ ३६० ॥ व्याख्याप्रज्ञ. - अब्धिंतरए तवे छव्विहे पण्णत्ते तं जहा - पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ झाणं विउसग्गो । २५ / ७ / ८०२/१८
१७. तत्त्वार्थसूत्र - जैनागम - समन्वय /९/१९ / पृ.२१४।
१८. वही / ९/२०/ पृ.२१४ ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org