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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २०७ तथा शुद्धनय,६ भूतार्थनय, निश्चयनय, परमार्थनय, व्यवहारनय, अभूतार्थनय यह भी आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार आदि अध्यात्मग्रन्थों की अध्यात्म-भाषागत पदावली है और इसके प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द ही हैं, क्योंकि अध्यात्मग्रन्थों के आद्यकर्ता वे ही हैं। भगवती-आराधना की गाथाओं पर इसका प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, यथा
सुद्धणया पुण णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वेंति अण्णाणं।
तम्हा मिच्छादिट्ठी णाणस्साराहओ णेव॥ ५॥ भ.आ.। निम्नलिखित गाथांश भी तुलनीय हैं
मोत्तूण णिच्छयटुं ववहारेण विदुसा पवटुंति॥ १५६॥ स.सा.। मोत्तूण रागदोसे ववहारं पट्टवेइ सो तस्स॥ ४५३॥ भ.आ.। अप्पाणमयाणतो
। २०२॥ स.सा.। ववहारमयाणतो
----- ॥ ४५४॥ भ.आ.। इन उदाहरणों से भी प्रकट होता है कि भगवती-आराधना पर कुन्दकुन्द की भाषाशैली का प्रभाव है। इस प्रकार ये सारे प्रमाण सिद्ध करते हैं कि पूर्वोक्त गाथाएँ कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों से भगवती-आराधना में संगृहीत की गई हैं। यतः भगवतीआराधना का रचनाकाल ईसा की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध है, अतः सिद्ध है कि कुन्दकुन्द उससे पूर्व हुए थे।
प्र. श. ई. के मूलाचार में कुन्दकुन्द की गाथाएँ ३.१. मूलाचार का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई०
पूर्व में भगवती-आराधना के रचनाकाल पर दृष्टिपात करते समय पं० नाथूराम जी प्रेमी के वचन उद्धृत किये गये हैं, जिनमें कहा गया है कि मूलाचार उतना ही पुराना ग्रन्थ है, जितनी भगवती-आराधना और भगवती-आराधना को प्रेमी जी, मुख्तार जी, मुनि श्री कल्याणविजय जी, प्रो० हीरालाल जी एवं डॉ० ज्योतिप्रसाद जी ने प्रथम शताब्दी ई० की कृति माना है। वहाँ यह भी दर्शाया गया है कि भगवती-आराधना की रचना मूलाचार से कुछ पहले हुई है। अतः भगवती-आराधना को प्रथम शती ई० के तृतीय चरण में और मूलाचार को चतुर्थ चरण में रचित मानना युक्तिसंगत
१६.क- "ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ॥" ११॥ समयसार।
ख- "सुद्धणयस्स दु जीवे ---------------॥" १४१॥ समयसार।
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