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२०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य। .
__एदे भट्ठविभट्ठा सेसं पि जणं विणासंति॥ ८॥ ___ इसके विपरीत भगवती-आराधना में दंसणपाहुड से ग्रहण की गई उक्त गाथा और उसके आधार पर शिवार्य द्वारा रची गई वैसी ही एक गाथा के अतिरिक्त और किसी भी गाथा में उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग नहीं मिलता। "दंसणभट्ठा भट्ठा, दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं" इस गाथा से विपरीतरूपेण शब्दार्थगत साम्य रखनेवाली गाथा भी कुन्दकुन्द के मोक्खपाहुड में मिलती है। यथा-"दंसणसुद्धो सुद्धो, दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं" (गा.३९)।
ये उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि दंसणभट्ठा, णाणभट्ठा, चरियभट्ठा तथा 'दसणभट्ठा भट्ठा' से विपरीत शब्दार्थवाले 'दंसणसुद्धा सुद्धा' आदि प्रयोग कुन्दकुन्द के विशिष्ट प्रयोग हैं। यह उनकी अपनी शब्दावली है। ये प्रयोग उनकी, शैली के अंग हैं। अतः 'दंसणभट्ठा भट्ठा' गाथा कुन्दकुन्दकृत ही है, जो शिवार्य द्वारा अपना ली गई है।
घ-भगवती-आराधनाकार ने 'दंसणभट्ठा भट्ठा' गाथा के अनुकरण पर निम्नलिखित गाथा स्वयं निबद्ध की है
दसणभट्ठो भट्ठो ण हु भट्ठो होइ चरणभट्ठो हु।
दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे॥ ७३८॥ इसमें शिवार्य ने कुन्दकुन्द के भाव को और स्पष्ट किया है। 'दंसणभट्ठा भट्ठा' कुन्दकुन्द की इस उक्ति से 'ण हु भट्ठो होइ चरणभट्ठो हु' यह अर्थ स्वतः ध्वनित होता है। तथा 'दंसणभट्ठा ण सिझंति' इस उक्ति से 'दंसणममुयत्तस्स हु परिवडणं णत्थि संसारे' (सम्यग्दर्शन का परित्याग न करनेवाले का संसार में पतन नहीं होता) यह अर्थ अपने आप आक्षिप्त होता है। तथापि शिवार्य ने इन अर्थों को शब्दों के द्वारा वाच्य बनाकर सर्वथा स्पष्ट कर दिया है ।
यदि आचार्य कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड की 'दंसणभट्ठा भट्ठा' गाथा स्वयं न रची होती, अपितु भगवती-आराधना से ग्रहण की होती, तो वे शिवार्य द्वारा रचित उत्तरगाथा भी ग्रहण करते, क्योंकि वह शब्द और अर्थ में पूर्व गाथा के ही समान है। किन्तु वह दंसणपाहुड और बारस अणुवेक्खा दोनों में पूर्वगाथा के साथ उपलब्ध नहीं है, इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने पूर्वगाथा भगवती-आराधना से ग्रहण नहीं की है, अपितु स्वयं रची है तथा भगवती-आराधना के कर्ता ने ही दंसणपाहुड से उसे संगृहीत किया है और उसके अनुकरण पर उक्त दूसरी गाथा की रचना की है।
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