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________________ २०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१०/प्र०१ से भी संभव नहीं है। डॉ० के० आर० चन्द्र ने काव्यगत वी० नि० सं० ५३० को वि० सं० ५३० मान लेने का अभिमत प्रकट किया है। यह अभिमत सब दृष्टियों से समुचित अनुभूत होता है।"१४ चूँकि भगवती-आराधना का रचनाकाल विद्वानों ने ईसा की प्रथम शताब्दी निर्धारित किया है, अतः उसमें उपर्युक्त गाथा उससे तीन सौ वर्ष बाद रचे गये पउमचरिय और तित्थोगालिय से नहीं आ सकती। इसलिए सिद्ध है कि वह प्रवचनसार से ही भगवती-आराधना में ग्रहण की गई है। तथा वह प्रवचनसार में तो प्रकरण के अनुरूप है, किन्तु भगवती-आराधना में प्रकरण से मेल नहीं खाती। प्रवचनसार की उक्त गाथा (३/३८) में त्रिगुप्ति (संयम) से प्रचुर कर्मों का शीघ्र क्षय होना बतलाया गया है और वह संयम के प्रकरण में ही निबद्ध है, जो पूर्वापर गाथाओं से स्पष्ट है। किन्तु भगवती-आराधना में वह स्वाध्यायतप के प्रकरण में रखी गई है, जो प्रकरणानुरूप नहीं है। इससे सिद्ध है कि भगवती-आराधना में वह प्रवचनसार से ही ग्रहण की गई है। २.३. कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में 'भगवती-आराधना' की गाथाएँ नहीं 'दंसणभट्ठा' गाथा कुन्दकुन्द के सणपाहुड से ही भगवती-आराधना में आयी है, यह निम्नलिखित हेतुओं से सिद्ध होता है क-दसणपाहुड में दसण और भट्ठा शब्दों के प्रयोग के अनुरूप शब्दगत प्रसंग विद्यमान है, जबकि भगवती-आराधना में नहीं है। सर्वप्रथम ग्रन्थ का नाम ही दंसणपाहुड या दंसणमग्गो है और मंगलाचरण में ही 'दंसणमग्गं वोच्छामि' कहकर दंसण शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके बाद दूसरी गाथा में 'दंसणमूलो धम्मो' वाक्यांश में दंसण शब्द का प्रयोग है। इस प्रकार तीसरी गाथा में 'दंसण भट्ठा भट्ठा' शब्दों के प्रयोग के अनुरूप शब्दगत प्रसंग दंसणपाहुड में उपलब्ध होता है, जबकि भगवतीआराधना में 'दंसण भट्ठो भट्ठो' गाथा के पूर्व किसी भी गाथा में दसण शब्द का प्रयोग नहीं है। यह गाथा सम्यक्त्वभावना के अन्तर्गत है और इसकी पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती सभी गाथाओं में सम्मत्त शब्द ही प्रयुक्त हुआ है। अतः इस गाथा में अचानक दंसण शब्द का प्रयोग शब्दगत प्रसंग के विरुद्ध हो जाने से अस्वाभाविक लगता है। इससे स्पष्ट होता है कि दंसणभट्ठो गाथा भगवती-आराधनाकार द्वारा रचित नहीं है, अपितु दंसणपाहुड से उठाकर वहाँ रख दी गई है तथा वैसी ही एक गाथा और ग्रन्थकार ने रचकर उसके बाद जोड़ दी है। ख-दूसरी बात यह है कि दंसणपाहुड की दूसरी गाथा में 'दंसणमूलो धम्मो' (सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है) इस जैनशासन के प्राणभूत महान् सिद्धान्त का प्रतिपादन Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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