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अ०१०/प्र.१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / २०३ ओगाढगाढणिचिदो पुग्गलदव्वेहिं सव्वदो लोगो। सुहमेहिं बादरेहिं य दिस्सादिस्सेहिं य तहेव॥ १८१८॥
भगवती-आराधना। ये गाथाएँ कुन्दकुन्द के ही ग्रन्थों से भगवती-आराधना में ली गई हैं, इसका प्रमाण यह है कि उपर्युक्त गाथाओं में 'दंसणभट्ठा' और 'जं अण्णाणी' को छोड़कर कोई भी गाथा श्वेताम्बरग्रन्थों में नहीं मिलती। 'अद्धवमसरण' गाथा तो ऐसी है कि इसमें वर्णित बारह अनुप्रेक्षाएँ भी किसी श्वेताम्बर-आगम में एक साथ उपलब्ध नहीं हैं। 'दसणभट्ठा' गाथा श्वेताम्बरीय प्रकीर्णक ग्रन्थ भक्तपरिज्ञा में हैं, किन्तु उसका रचनाकाल ११वीं शताब्दी ई० है। (देखिये, पा. टि. ७६)। अतः उससे भगवती-आराधना में नहीं आ सकती। 'जं अण्णाणी कम्मं' गाथा विमलसूरि के पउमचरिय तथा श्वेताम्बरीय प्रकीर्णक ग्रन्थ तित्थोगालिय या तित्थोगालियपयन्नु२ (तीर्थोद्गार) में भी है। इनमें से तित्थोगालियपयन्नु को मुनि श्री कल्याणविजय जी ने विक्रम की चौथी शताब्दी के अन्त और पाँचवी शताब्दी के आरंभ में रचित स्वीकार किया है।३ "विमलसूरि ने पउमचरिय का रचनाकाल यद्यपि वीरनिर्वाण सं० ५३० (ई० सन् ३) बतलाया है, किन्तु डॉ० हर्मन जेकोबी ने ग्रन्थ का अन्तःपरीक्षण कर इसका रचनाकाल ईसवी सन् की तीसरी-चौथी शताब्दी सिद्ध किया है। डॉ० कीथ, डॉ० वूल्लर आदि पाश्चात्य विद्वान् , मुनि जिनविजय जी, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० परमानन्द शास्त्री आदि जैन विद्वान् तथा डॉ० के० एच० ध्रुव आदि जैनेतर विद्वान् भी इस ग्रन्थ को अर्वाचीन मानने के पक्ष में हैं।"१४ इस विषय में माननीया श्वेताम्बर साध्वी संघमित्रा जी अपना मत प्रकट करते हुए लिखती हैं-"मेरे अपने अभिमत से काव्यगत कालसंवत् (पउमचरियकाव्यसम्बन्धी कालसंवत्) के निरसन में डॉ. हर्मन जेकोबी आदि विद्वानों द्वारा प्रदत्त युक्तियों में सर्वाधिक सबल आधार विमलसूरि की गुरु-परम्परा का नाइल कुल से सम्बन्धित होना है। इस शाखा का जन्म वी० नि० ५८०-६०० से पहले किसी प्रकार
११. जं अन्नाणतवस्सी खवेइ भवसयसहस्स कोडेहिं।
कम्मं तं · तिहि गुत्तो खवेइ नाणी मुहुत्तेण॥ १२०, १७७॥ पउमचरिय। १२. जं अन्नाणी कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। ___ तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ १२१३॥ तित्थोगालियपयन्नु। १३. क- डॉ. जगदीशचन्द्र जैन : प्राकृत साहित्य का इतिहास / पृष्ठ १२३ ।
ख- "तित्थोगालिय में उल्लिखित अनेक मान्यताएँ श्वेताम्बरसम्प्रदाय में मान्य नहीं और . आगमों के व्युच्छिन्न होने का क्रम भी संगत प्रतीत नहीं होता : मुनि पुण्यविजय
जी 'जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय' ज्ञानांजलि, ४७।" वही / पा.टि./ पृ.१२३ । १४. साध्वी संघमित्रा : जैनधर्म के प्रभावक आचार्य / पृ.२४४,२४५।।
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