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________________ २०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१० / प्र०१ लिया था और दिगम्बर मुनि बन गये थे, दिगम्बर मुनि बनने के बाद उन्होंने ही 'भगवती-आराधना' की रचना की हो। इस प्रकार पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भगवतीआराधना का रचना काल वि० सं० १३९ ( ई० सन् ८२) माना है तथा शेष विद्वान् भी भगवती-आराधना के कर्त्ता शिवार्य को बोटिक शिवभूति से अभिन्न मान कर इसी समय में भगवती - आराधना की रचना होने के निष्कर्ष पर पहुँचे हैं, क्योंकि बोटिक शिवभूति ने वीर नि० सं० ६०९ अर्थात् ई० सन् ८२ में ही दिगम्बरमत ग्रहण किया था । इस तरह 'भगवती आराधना' प्रथम शताब्दी ई० के उत्तरार्ध की कृति है । पर वह इसी समय रचे गये मूलाचार से निश्चित ही पूर्ववर्ती है, क्योंकि मूलाचार में आराधनानियुक्ति के नाम से भगवती - आराधना का उल्लेख किया गया है। यथा— आराहणणिज्जत्ती मरणविभत्ती य संगहत्थुदिओ । पच्चक्खाणावासयधम्मकहाओ य एरिसओ ॥ २७९ ॥ अनुवाद - " अस्वाध्याय काल में आराधनानिर्युक्ति ( आराधना का कथन करने वाला ग्रन्थ), मरणविभक्ति (सत्रह प्रकार के मरण का प्रतिपादक ग्रन्थ), संग्रहग्रन्थ, स्तुतिग्रन्थ, प्रत्याख्यानग्रन्थ, आवश्यकक्रिया-प्रतिपादकग्रन्थ, धर्मकथाग्रन्थ तथा ऐसे ही अन्य ग्रन्थ पढ़े जा सकते हैं । " दिगम्बर साहित्य में निर्युक्ति का अर्थ शास्त्र है । अतः उक्त गाथा में 'आराधनानिर्युक्ति' शब्द के द्वारा 'भगवती - आराधना' नामक शास्त्र का निर्देश किया गया है। डॉ० सागरमल जी ने उपर्युक्त गाथा में 'आराधना' शब्द से 'भगवती आराधना' का ही उल्लेख माना है। वे लिखते हैं 'आराधना के नाम से सुपरिचित ग्रन्थ शिवार्य का भगवती आराधना या मूलाराधना है । यह सुस्पष्ट है कि भगवती आराधना मूलतः दिगम्बरपरम्परा का ग्रन्थ न होकर यापनीयसंघ का ग्रन्थ है । मूलाचार में जिस 'आराधना' का निर्देश किया गया है, वह संभवतः भगवती-आराधना हो, क्योंकि 'मूलाचार' भी उसी यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ प्रतीत होता है और मूलाचार के रचनाकार ने सर्वप्रथम उसी ग्रन्थ का उल्लेख किया है । (जै. ध. या.स./ पृ. १३७)। 44 यद्यपि भगवती - आराधना और मूलाचार दोनों यापनीयपरम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ हैं, इसके प्रमाण इन्हीं नामोंवाले उत्तरवर्ती अध्यायों में द्रष्टव्य हैं, तथापि डॉक्टर सा० का यह कथन युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि 'दोनों एक ही १०. देखिए, अध्याय १५ / प्रकरण २ / शीर्षक ९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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