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अ०१०/प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / १९९ धुरन्धर आचार्य आर्य शिव, जो कि स्वयं हस्तभोजी थे, अपने 'भगवती-आराधना' ग्रन्थ में लिखते हैं-'जो औत्सर्गिक लिङ्ग में रहनेवाला हो, उसके लिए तो वह है ही, पर आपवादिक लिंगवाले को भी संथारा लेने के समय औत्सर्गिक लिङ्ग (नग्नता) धारण करना श्रेष्ठ है।" (अ.भ.म./पृ.२९६)।
___ मुनि जी ने शिवभूति को यापनीयसम्प्रदाय का संस्थापक मानकर ये उद्गार व्यक्त किये हैं। किन्तु शिवभूति यापनीयसम्प्रदाय का संस्थापक नहीं था, अपितु उसने श्वेताम्बरसम्प्रदाय को छोड़कर दिगम्बरसम्प्रदाय अपनाया था, इस तथ्य का सप्रमाण प्रदर्शन द्वितीय अध्याय में किया गया है। यहाँ केवल यह बात ध्यान देने योग्य है कि मुनि जी ने भगवती-आराधना को शिवभूति के विचारों का प्रतिनिधित्व करनेवाला ग्रन्थ माना है, जिससे सिद्ध होता है कि वह शिवभूति के बराबर ही पुराना है। यह संभव है कि उसकी रचना शिवभूति के ही द्वारा की गई हो। निम्नलिखित विद्वानों का ऐसा ही मत है।
प्रो० हीरालाल जी जैन अपने एक पुराने लेख में लिखते हैं-"आवश्यकमूलभाष्य के अनुसार जिन शिवभूति ने बोडिकसंघ की स्थापना की थी, वे स्थविरावली में उल्लिखित आर्य शिवभूति तथा भगवती-आराधना के कर्ता शिवार्य एवं उमास्वाति के गुरु शिवश्री से अभिन्न हैं।"८
.. डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन ने शिवार्य के समय का विचार करते हुए लिखा है-"शिवार्य सम्भवतः श्वेताम्बर-परम्परा के शिवभूति हैं। ये उत्तरापथ की मथुरा नगरी से सम्बद्ध हैं और इन्होंने कुछ समय तक पश्चिमी सिन्ध में निवास किया था। बहुत सम्भव है कि शिवार्य भी कुन्दकुन्द के समान सरस्वती-आन्दोलन से सम्बद्ध रहे हों। वस्तुतः शिवार्य ऐसे जैनमुनियों की शाखा से सम्बन्धित हैं, जो उन दिनों न तो दिगम्बरशाखा के ही अन्तर्गत थी और न श्वेताम्बर शाखा के ही। वे यापनीयसंघ के आचार्य थे। अतएव मथुरा-अभिलेखों से प्राप्त संकेतों के आधार पर इनका समय ई० सन् की प्रथम शताब्दी माना जा सकता है।"९
शिवार्य यापनीय-परम्परा के आचार्य नहीं थे, अपितु वे दिगम्बर ही थे, इसके प्रमाण त्रयोदश अध्याय में द्रष्टव्य हैं। हाँ, यह हो सकता है कि वे श्वेताम्बरपरम्परा के वही बोटिक शिवभूति हों, जिन्होंने श्वेताम्बरमत छोड़कर दिगम्बरमत स्वीकार कर
८. 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' (दिगम्बर जैन सिद्धान्तदर्पण (द्वितीय अंश)/ सम्पादक
: श्री रामप्रसाद शास्त्री / बम्बई । १२ दिसम्बर, १९४४ / पृष्ठ १०)। ९. The Jain Sources of the History of Ancient India, pp.130-31 (तीर्थंकर महावीर
और उनकी आचार्य-परम्परा / खण्ड २/ पृ.१२७ से उद्धृत)
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