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१९८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ से चली आ रही थी और जैनधर्म की दिगम्बर और श्वेताम्बर नाम की मुख्य शाखाएँ एक-दूसरे से इतनी अधिक जुदा और कटुभावापन्न नहीं हो गई थीं, जितनी कि आगे चलकर हो गईं। इन दोनों ही ग्रन्थों में ऐसी सैकड़ों गाथाएँ हैं, जो श्वेताम्बर-सम्प्रदाय के भी प्राचीन ग्रन्थों में मिलती हैं और जो दोनों सम्प्रदायों के जुदा होने के इतिहास की खोज करनेवालों को बहुत सहायता दे सकती हैं।"
पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपनी सम्पादकीय टिप्पणी में प्रेमी जी के मत का समर्थन इन शब्दों में किया है-"इसमें (भगवती-आराधना में) ग्रन्थकर्ता शिवार्य ने अपना जो विशेषण 'पाणितलभोजी' दिया है, उससे इतना तो साफ ध्वनित होता है कि इस ग्रन्थ की रचना उस समय हुई है, जब कि जैन समाज में करतलभोजियों के अतिरिक्त मुनियों का एक दूसरा सम्प्रदाय पात्र में भोजन करनेवाला भी उत्पन्न हो गया था। उसी से अपने को भिन्न दिखलाने के लिए इस विशेषण के प्रयोग की जरूरत पड़ी है। यह सम्प्रदायभेद दिगम्बर और श्वेताम्बर-भेद है, जिसका समय उभय सम्प्रदायों द्वारा क्रमशः वि० सं० १३६ तथा वी० नि० सं० ६०९ (वि० सं० १३९) बतलाया जाता है। इससे यह ग्रन्थ इस भेदारम्भ-समय के कुछ बाद का अथवा इसके करीब का रचा हुआ है, ऐसा जान पड़ता है।"
- मुनि कल्याणविजय जी ने भी निम्नलिखित वक्तव्य में भगवती-आराधना को प्राचीन ग्रन्थ कहा है-"यद्यपि शिवभूति ने वस्त्रपात्र न रखने का उत्कृष्ट जिनकल्प स्वीकारा था, तथापि आगे जाकर उन्हें अनुभव हुआ कि इस प्रकार का उत्कृष्ट मार्ग अधिक समय तक चलना कठिन है। अत एव उन्होंने साधुओं के आपवादिक लिंग को भी स्वीकार किया। पाठकगण हमारी इस बात को कोरी कल्पना न समझें, क्योंकि इसी सम्प्रदाय के प्राचीन ग्रन्थों से यह बात प्रमाणित होती है। दिगम्बर-सम्प्रदाय के
६. वही/ पृष्ठ १४९। ७. क- 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ'। अनेकान्त'/ वर्ष १/किरण ३/ वि.सं.१९८६ /
पादटिप्पणी / पृ.१४८। ख-प्रस्तुत ग्रन्थ के 'दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद का इतिहास' अध्याय में सप्रमाण दर्शाया गया
है कि दिगम्बर-श्वेताम्बरभेद अन्तिम अनुबद्ध केवली जम्बूस्वामी के निर्वाण के पश्चात् ही हो गया था। देवसेन ने 'दर्शनसार' में उक्त भेद का काल जो वि.सं. १३६ बतलाया है। वह प्रामाणिक नहीं है। इसी प्रकार श्वेताम्बरग्रन्थों में जो वीर नि.सं. ६०९ (वि.सं.१३९) में बोटिक शिवभूति को दिगम्बरसम्प्रदाय का प्रवर्तक वर्णित किया गया है, वह भी समीचीन नहीं है। बोटिक शिवभूति दिगम्बरमत का प्रवर्तक नहीं था, अपितु उसने श्वेताम्बरमत को छोड़कर दिगम्बरमत स्वीकार किया था। इसका निरूपण द्वितीय अध्याय में किया जा चुका है।
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