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अ०१० / प्र०१
आचार्य कुन्दकुन्द का समय / १९७ मुख्तार जी के अनुसार यह हो सकता है कि श्रवणबेलगोल के कितने ही शिलालेखों में उमास्वाति के प्रधान शिष्य रूप से 'बलाकपिच्छ' का ही नाम दिया है । सम्भवतः लोहाचार्य उनका ही नामान्तर होगा । (स्वामी समन्तभद्र / पृ. १४५)।
मुख्तार जी ने इस शंका का भी निवारण किया है कि विक्रम की प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध) में एकांगधरों का अस्तित्व था, जब कि कुन्दकुन्द एकांगधर नहीं थे, अतः उक्त समय में कुन्दकुन्द का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। मुख्तार जी का कथन है कि " अंगज्ञानी न होने पर भी कुन्दकुन्द का अंगज्ञानियों के समय में होना कोई असंभव या अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। उस समय भी दूसरे ऐसे विद्वान् जरूर होते रहे हैं, जो एक भी अंग के पाठी नहीं थे।" (स्वामी समन्तभद्र/पृ.१७८)।
इस प्रकार 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित पट्टावली में कुन्दकुन्द का जो अस्तित्वकाल दर्शाया गया है वह किसी भी प्रकार बाधित नहीं होता । उक्त पट्टावली के अनेक दोषों की ओर इंगित करते हुए भी मुख्तार जी का यह कथन महत्त्वपूर्ण है कि " फिर भी उसमें उल्लिखित अनेक समयों के सत्य होने की संभावना है और इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि कुन्दकुन्द के उक्त समय की सत्यता में प्रकारान्तर से कोई बाधा आती है या नहीं ?" ( स्वामी समन्तभद्र / पृ.१७६)।
यहाँ वे प्रमाण उपस्थित किये जा रहे हैं, जिनसे उक्त पट्टावली में कुन्दकुन्द का जो समय (ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी) बतलाया गया है, उसकी दृढ़ता से पुष्टि होती । वे प्रमाण साहित्य और अभिलेखों में उपलब्ध हैं।
प्र. श. ई. की 'भगवती - आराधना' में कुन्दकुन्द की गाथाएँ
२.१. भगवती - आराधना का रचनाकाल
प्रायः सभी विद्वानों ने भगवती आराधना को अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ माना है। पं० नाथूराम जी प्रेमी लिखते हैं-" भगवती आराधना की रचना कब हुई थी, इसके स्पष्ट जानने का कोई साधन उपलब्ध नहीं है, परन्तु यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि यह बहुत प्राचीन ग्रन्थ है । आचार्य वट्टर का मूलाचार और यह भगवतीआराधना दोनों ग्रन्थ उस समय के हैं, जब मुनिसंघ और उसकी परम्परा अविच्छिन्नरूप
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५. 'भगवती आराधना और उसकी टीकाएँ / 'अनेकान्त' / वर्ष १, किरण ३ / वि. सं. १९८६ / पृष्ठ १४८।
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