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१९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१०/प्र०१ सौ (२५०) वर्ष का भारी अन्तर है। इतिहास में पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दी का उल्लेख मिलता है और यह भी उल्लेख मिलता है कि उन्होंने वि० सं० ५२६ में द्राविडसंघ की स्थापना की, परन्तु पट्टावली में पूज्यपाद के बाद दो आचार्यों (जयनन्दी
और गुणनन्दी) का उल्लेख करके चौथे (१३) नम्बर पर वज्रनन्दी का नाम दिया है और साथ ही उनका समय भी वि० स० ३६४ से ३८६ तक बतलाया है। क्रमभेद के साथ-साथ इन दोनों समयों में भी परस्पर बहुत बड़ा अन्तर जान पड़ता है। इतिहास से वसुनन्दी का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी मालूम होता है, परन्तु पट्टावली में ६ठी शताब्दी (५२५-५३१) दिया है। इस तरह जाँच करने से बहुत से आचार्यों का समयादिक इस पट्टावली में गलत पाया जाता है, जिसे विस्तार के साथ दिखलाकर यहाँ इस निबन्ध को तूल देने की जरूरत नहीं है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यह पट्टावली कितनी संदिग्धावस्था में है और केवल इसी के आधार पर किसी के समयादिक का निर्णय कैसे किया जा सकता है? प्रोफेसर हार्नले, डाक्टर पिटर्सन और डॉ० सतीशचंद्र ने इस पट्टावली के आधार पर ही उमास्वाति को ईसा की पहली शताब्दी का विद्वान् लिखा है और उससे यह मालूम होता है कि उन्होंने इस पट्टावली की कोई विशेष जाँच नहीं की, वैसे ही उसके रंग-ढंग पर से उसे ठीक मान लिया है।" (स्वामी समन्तभद्र / पृ.१४५-१४६)।
यह सत्य है कि उपर्युक्त पट्टावली में कुछ आचार्यों का समय और क्रम त्रुटिपूर्ण है। तथापि उसमें कुन्दकुन्द से लेकर चित्तौड़पट्ट के महेन्द्रकीर्ति (क्र. १०२, वि० सं० १९३८ = ई० सन् १८८१) तक कुन्दकुन्दान्वय में जितने पट्टधर हुए हैं, उनके अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि उनका अस्तित्व अन्य पट्टावलियों एवं शिलालेखों से भी प्रमाणित है और उनका निर्दिष्ट पट्टकाल भी असंभव प्रतीत नहीं होता। अतः यदि कुन्दकुन्द का स्थितिकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शती से नीचे लाया जाता है, तो इण्डियन एण्टिक्वेरी-पट्टावली में निर्दिष्ट १२८ पट्टधरों में से ५७ (१८+३९) का अस्तित्व मिथ्या घटित होता है, जो मिथ्या नहीं है। इसका सयुक्तिक प्रतिपादन अष्टम अध्याय के तृतीय प्रकरण (शीर्षक ६) में किया जा चुका है। अतः उक्त पट्टावली में निर्दिष्ट आचार्यों के समय एवं क्रम में संशोधन कर लेने के बाद भी कुन्दकुन्द का समय ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी से नीचे नहीं लाया जा सकता।
उक्त पट्टावली में उमास्वाति के पश्चात् लोहाचार्य का नाम निर्दिष्ट है, जब कि नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली में वह भद्रबाहु (द्वितीय) के पश्चात् है। इसका समाधान २. The Indian Antiquary, Vol. XX, pp, 341-351. ३. Peterson's fourth report on Sanskrit manuscripts p,XVI. ४. History of the Mediaeval school of Indian Logic, pp., 8,9.
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