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________________ अन्तस्तत्त्व ६४१ ६५५ ६५६ [इक्कीस] १०.४. दिगम्बरग्रन्थों में वेदवैषम्याश्रित भावस्त्री-द्रव्यपुरुषवाचक 'मणुसिणी' या 'मानुषी' संज्ञा १०.५. षट्खण्डागम में मणुसिणी को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कथन ६४९ १०.६. तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री के तीर्थंकर होने का निषेध ६४९ १०.७. षखंडागम में नपुंसकवेदी मनुष्य को तीर्थंकरप्रकृति के बन्ध का कथन ६५१ १०.८. तीनों परम्पराओं में द्रव्यनपुंसक की मुक्ति का निषेध ६५२ १०.९. श्वेताम्बर-साहित्य में दशविध जन्मजात, षड्विध कृत्रिम नपुंसक ६५३ १०.१०. षट्खण्डागम में स्त्रीवेदी मनुष्य को उत्कृष्ट देव-नारकायु के बन्ध का कथन १०.११. तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री को उत्कृष्ट नारकायु के बन्ध का निषेध १०.१२. तीनों परम्पराओं में द्रव्यस्त्री को उत्कृष्ट देवायु के बन्ध का निषेध ६५७ पंचम प्रकरण-यापनीयों की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का निरसन ६६१ १. यापनीय-आचार्य शाकटायन की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियाँ ६६१ २. शाकटायन की वेदवैषम्यविरोधी युक्तियों का निरसन ६६७ षष्ठ प्रकरण-'मणुसिणी' शब्द केवल द्रव्यस्त्रीवाचक : इस मत का निरसन ६७१ १. धवलाकार द्वारा 'मणुसिणी' शब्द का स्पष्टीकरण ६७३ २. न्यायसिद्धान्तशास्त्री पं० पन्नालाल जी सोनी का मत ६७६ ३. पं० वंशीधर जी व्याकरणाचार्य का मत ६७८ ४. भावनपुंसकत्व की स्वीकृति से भावस्त्रीत्व की पुष्टि ६८१ ५. द्रव्यनपुंसक की मुक्ति तीनों परम्पराओं में अमान्य ६८३ सप्तम प्रकरण-'संजद' पद छोड़ा नहीं, जोड़ा गया है ६८५ १. 'संजद' पद होने के पक्ष में व्याकरणाचार्य जी का तर्क ६८७ २. 'संजद' पद होने के पक्ष में कोठिया जी का तर्क ६८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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