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[ बीस ]
३.
गुणस्थानसिद्धान्त सर्वज्ञोपदिष्ट, विकसित नहीं ४. गुणस्थान - सिद्धान्त यापनीय - सिद्धान्तों के विरुद्ध४. १. मिथ्यादृष्टि ( परलिंगी) की मुक्ति के विरुद्ध
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
४.१.१. जिनलिंग पूज्य, जिनलिंगाभास अपूज्य ४.१.२. चतुर्जेनाभास - गृहीत नग्नवेश भी जिनलिंगाभास ४.१.३. पार्श्वस्थादि भ्रष्ट जैनमुनियों का नाग्न्यलिंग कुलिंग ४.१.४. जिनलिंगाभास केवलज्ञानसाधक नहीं
४. २. गृहस्थमुक्ति के विरुद्ध
४.३. स्त्री के तीर्थंकर होने के विरुद्ध
४.४. लौकिक क्रियाएँ करते हुए केवलज्ञान - प्राप्ति के विरुद्ध
४.४.१. मरुदेवी
४.४.२. चन्दना-मृगावती
४.४.३. बुहारी लगाने वाली वृद्धा
४. ४.४. गुरु को कन्धे पर बैठाकर ले जानेवाला शिष्य
४.४.५. ढंढण ऋषि
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४.४.६. नट इलापुत्र ४.४.७. कूर्मापुत्र
४.५. सयोगकेवलि-गुणस्थान में मुक्ति के विरुद्ध
४. ६. शुभोपयोग के द्वारा केवलज्ञानप्राप्ति के विरुद्ध
४.७. सावद्ययोग- परिणत जीव को केवलज्ञानप्राप्ति के विरुद्ध षट्खण्डागम में तीर्थंकर प्रकृतिबन्ध के सोलह कारण
५.
६. षट्खण्डागम में स्थविर ( सवस्त्र) साधु अमान्य
७.
षट्खण्डागम में सोलह कल्प (स्वर्ग) मान्य
८.
षट्खण्डागम में नव अनुदिश मान्य
९. षट्खण्डागम का भाववेदत्रय यापनीयों को अमान्य
१०. षट्खण्डागम में यापनीय - अमान्य वेदवैषम्य की स्वीकृति १०.१. पुरुषादि - शरीररचना का हेतु पुरुषादि - अंगोपांग - नामकर्म १०.२. श्वेताम्बरग्रन्थों में भी वेदवैषम्य मान्य
१०.३. श्वेताम्बरग्रन्थों में एक ही भव में उभयवेद-परिवर्तन
भी मान्य
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