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१९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०९ अन्तिम गाथा की तात्पर्यवृत्ति में लिखा है कि आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार के कर्ता हैं और शिवकुमार महाराज श्रोता।१७ उन्होंने समयसार तथा पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति के आरंभ में भी यह उल्लेख कर दिया है कि इन ग्रन्थों की रचना आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा हुई है। किन्तु अमृतचन्द्र सूरि ने तीनों ग्रन्थों की टीका में कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया कि वे ग्रन्थ कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचे गये हैं। इससे स्पष्ट है कि आचार्य अमृतचन्द्र को यह ज्ञात नहीं था कि समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द हैं और इससे स्पष्ट होता है कि उनके समय में मुनिसंघों में भी उक्त प्रकार की प्रसिद्धि नहीं थी। आचार्य अमृतचन्द्र के समकालीन दर्शनसार के कर्ता देवसेन ने केवल इतना लिखा है कि "विदेहक्षेत्र के वर्तमान तीर्थंकर सीमन्धरस्वामी के समवसरण में जाकर श्री पद्मनन्दिनाथ (कुन्दकुन्द स्वामी) ने जो दिव्यज्ञान प्राप्त किया था, उसके द्वारा यदि वे बोध न देते, तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ?"१८ लगभग इसी समय (१० वीं शती ई०) के आचार्य इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार (कारिका १६०-१६१) में कहा है कि कुण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दी ने षट्खण्डागम के आदि के तीन खण्डों पर परिकर्म नामक ग्रन्थ की रचना की थी। किन्तु इन दोनों आचार्यों ने कुन्दकुन्द के द्वारा समयसारादि ग्रन्थ रचे जाने की बात नहीं कही। सर्वप्रथम ईसा की बारहवीं सदी में आचार्य जयसेन ने कुन्दकुन्द को उक्त ग्रन्थों का रचयिता बतलाया है और उनके कुछ समय बाद १२ वीं शती ई० में ही हुए माइल्लधवल ने लिखा है कि मैंने कुन्दकुन्दाचार्य-चित शास्त्रों से सारभूत अर्थ ग्रहणकर द्रव्यस्वभाव-प्रकाशकनयचक्र की रचना की है।१९ उन्होंने पंचास्तिकाय आदि ग्रन्थों को आगम कहकर, उनसे अनेक उद्धरण भी दिये हैं।२० इससे ज्ञात होता है कि जयसेन को कुन्दकुन्द
चारित्रं प्रतिपन्नमिति पूर्वापरविरोधः। परिहारमाह-ग्रन्थप्रारम्भात् पूर्वमेव दीक्षा गृहीता तिष्ठति, परं किन्तु ग्रन्थकरणव्याजेन क्वाप्यात्मानं भावनापरिणतं दर्शयति, क्वापि शिवकुमारमहाराजं, क्वाप्यन्यं भव्यजीवं वा। तेन कारणेनात्र ग्रन्थे पुरुषनियमो नास्ति, कालनियमो नास्तीत्यभिप्रायः।"
तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार/३/१। १७. "किं च 'उवसंपयामि सम्म' इत्यादि --- प्रतिज्ञां --- कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पुनर्ज्ञानदर्शना
धिकारद्वयरूपग्रन्थसमाप्तिरूपेण समाप्तिं नीता, शिवकुमारमहाराजेन तु तद्ग्रन्थश्रवणेन च।"
तात्पर्यवृत्ति / प्रवचनसार / २ / १०८ । १८. जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
__ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति॥ ४३॥ दर्शनसार। १९. "श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृतशास्त्रात् सारार्थं परिगृह्य स्वपरोपकाराय द्रव्यस्वभावप्रकाशकं नयचक्रं
मोक्षमार्ग कुर्वन् ---" द्रव्यस्वभावप्रकाशक-नयचक्र / उत्थानिका / गाथा १। २०. "उक्तं च आगमे
चरियं चरदि सगं सो जो परदव्वप्पभावरहिदप्पा।
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