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गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण / १८९ ज्ञान नहीं था कि समयसारादि ग्रन्थ आचार्य कुन्दकुन्द की लेखनी से प्रसूत हुए हैं। इसका प्रमाण प्रवचनसार की निम्नलिखित गाथा की अमृतचन्द्रकृत टीका में मिलता है
एस सुरासुरमणुसिंदवंदिदं धोदघाइकम्ममलं।
पणमामि वड्डमाणं तित्थं धम्मस्स कत्तारं॥ १/१॥ अनुवाद-"यह मैं उन वर्धमानस्वामी को प्रणाम करता हूँ , जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों के द्वारा वन्दित हैं, जिन्होंने घातिकर्मों के मल को धो डाला है तथा जो धर्मतीर्थ के कर्ता हैं।"
यहाँ 'एस' ( एषः अहम् = यह मैं ) सर्वनाम 'प्रवचनसार' ग्रन्थ के कर्ता के लिए प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि को इसकी व्याख्या ग्रन्थकार कुन्दकुन्द के नाम का निर्देश करके करनी चाहिए थी, जैसे "यह मैं कुन्दकुन्द --- वर्धमान स्वामी को प्रणाम करता हूँ।" किन्तु उन्होंने "एष स्वसंवेदनप्रत्यक्षो दर्शनज्ञानसामान्यात्माहं --- श्रीवर्धमानदेवं प्रणमामि" ( यह स्वसंवेदनप्रत्यक्ष दर्शनज्ञानस्वरूप आत्मा मैं --- श्रीवर्धमान स्वामी को प्रणाम करता हूँ), इन शब्दों में की है। अर्थात् उन्होंने कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया। इसका कारण न तो यह हो सकता है कि कुन्दकुन्द से उन्हें कोई द्वेष था और न यह कि टीकाकार द्वारा ग्रन्थकर्ता के नाम का उल्लेख करने की परम्परा नहीं थी। अन्यथानुपपत्ति से केवल यही कारण उभरकर सामने आता है कि टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि 'प्रवचनसार' के कर्ता वही कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से प्रसिद्ध कुन्दकुन्दान्वय प्रचलित हुआ है।
आचार्य जयसेन ने 'एस' सर्वनाम शिवकुमार नामक राजा के लिए प्रयुक्त माना है।५ जो संगत नहीं है,१६ क्योंकि ग्रन्थ की आद्य गाथाएँ मंगलाचरणरूप हैं और उनका प्रयोग ग्रन्थकार ही करता है। स्वयं जयसेन ने प्रवचनसार के द्वितीय अधिकार की
ख-आठवीं-नौवीं शताब्दी ई० के आचार्य विद्यानंद ने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में तथा
ग्यारहवीं शती ई० के वादिराजसूरि ने 'पार्श्वनाथचरित' में भी गृद्धपिच्छ को ही तत्त्वार्थसूत्र का कर्ता बतलाया है। (सिद्धा० पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री सर्वार्थसिद्धि।
प्रस्तावना / पृ.५७-६०)। १५. अथ कश्चिदासन्नभव्यः शिवकुमारनामा---भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनो--- प्रणम्य परमचारित्रमा
श्रयामीति प्रतिज्ञां करोति।" तात्पर्यवृत्ति / पातनिका प्रवचनसार / १/१-५। १६. उक्त असंगति का परिहार आचार्य जयसेन ने इस प्रकार किया है-"किं च पूर्वं ग्रन्थप्रारम्भकाले
साम्यमाश्रयामीति शिवकुमारमहाराजनामा प्रतिज्ञां करोतीति भणितम्। इदानीं तु ममात्मना
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