________________
१८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०९
ने भी किया है और कुन्दकुन्द के वचन से उसकी पुष्टि की है । १३ अतः कुन्दकुन्द के दार्शनिक विचारों से कोई भी असहमत नहीं था, अपितु सभी उत्तरवर्ती ग्रन्थकार उनके अनुगामी थे। फिर भी उन्होंने उनके नाम की चर्चा नहीं की ।
इसका एक ही कारण प्रतीत होता है। वह कारण है समयसारादि ग्रन्थों में उनके कर्त्ता कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होना और मुनिसंघों में भी यह प्रसिद्ध न हो पाना या इस प्रसिद्धि का लुप्त हो जाना कि उक्त ग्रन्थों के कर्त्ता कुन्दकुन्द हैं । जैसे तत्त्वार्थसूत्र में उसके कर्त्ता गृध्रपिच्छ के नाम का उल्लेख न होने से और यह प्रसिद्ध न होने से कि उसके कर्त्ता गृध्रपिच्छ हैं, टीकाकार पूज्यपाद स्वामी (५वीं शती ई०) और भट्ट अकलंकदेव (७वीं शती ई०) भी उनसे अपरिचित रहे आये, जिसके फलस्वरूप वे अपनी टीकाओं में तत्त्वार्थसूत्रकार के रूप में उनका नाम निर्दिष्ट नहीं कर सके, वैसे ही समयसारादि ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न होने से तथा यह प्रसिद्ध न होने से कि उन ग्रन्थों के रचयिता कुन्दकुन्द हैं, दसवीं शताब्दी ई० के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र भी इस तथ्य से अनभिज्ञ रहे कि समयसारादि महान् ग्रन्थों के कर्त्ता वही आचार्य कुन्दकुन्द हैं, जिनसे कुन्दकुन्दान्वय नाम का विशाल अन्वय प्रसूत हुआ ।
जिस प्रकार बहुत समय बाद आठवीं शती ई० में धवलाटीका के कर्त्ता वीरसेन स्वामी ने किसी प्राचीन लिखित स्रोत से यह ज्ञात होने पर कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्त्ता आचार्य गृध्रपिच्छ हैं, धवलाटीका में इसका उल्लेख किया है, १४ उसी प्रकार बारहवीं शती ई० में किसी प्राचीन ग्रन्थादि से यह जानकारी प्राप्त होने पर कि समयसारादि ग्रन्थों के निर्माता वही महान् कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय प्रवाहित हुआ है, आचार्य जयसेन ने अपनी टीकाओं में उन ग्रन्थों के निर्माता के रूप में आचार्य कुन्दकुन्द के नाम की चर्चा की है। आठवीं शती ई० से पहले के सभी ग्रन्थकार और टीकाकार इस तथ्य से अनभिज्ञ थे कि 'तत्त्वार्थसूत्र' के कर्त्ता आचार्य गृध्रपिच्छ हैं और बारहवीं शताब्दी ई० के पूर्ववर्ती समस्त ग्रन्थकर्त्ताओं और टीकाकारों को यह
१३. “तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनयः स त्रिविधो नैगमसङ्ग्रहव्यवहारभेदेन । तत्र सत्तादिना यः सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैतत्वमध्यवस्यति शुद्धद्रव्यार्थिकः स सङ्ग्रहः । अत्रोपयोगिनी गाथासत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगुप्पायधुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥'
(धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु. ९ / ४,१,४५ / पृ.१७० - १७१ । यहाँ उद्धृत गाथा 'पञ्चास्तिकाय' की ८ वीं गाथा है ।)
१४. क— “ तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि 'वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो ।" धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु. ४/१,५,१/पृ.३१६ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org