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गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण / १८७ या सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। उन्होंने जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में ढाला था। जान पड़ता है कि जिनसेन आदि के समय तक उनका मत सर्वमान्य नहीं हुआ और इसीलिए उनके प्रति उन्हें कोई आदरभाव नहीं था।"११
__ इस पर आपत्ति करते हुए प्रो० ढाकी प्रश्न करते हैं कि यदि कुन्दकुन्द की नई विचारधारा से अन्य आचार्य सहमत नहीं थे, तो उन्होंने उसका प्रतिवाद क्यों नहीं किया और असहमत होते हुए भी उनके ग्रन्थों का अनुसरण क्यों किया जाता रहा?१२
प्रो० ढाकी का यह प्रश्न उचित है। मैं भी प्रेमी जी से सहमत नहीं हूँ। कुन्दकुन्द के 'वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं' (स.सा./गा.१) ये वचन प्रमाण हैं कि उन्होंने किसी नये आम्नाय या सम्प्रदाय का प्रवर्तन नहीं किया था अर्थात् जैनधर्म को वेदान्त के साँचे में नहीं ढाला था, बल्कि श्रुतकेवली भद्रबाहु ने जैसा उपदेश दिया था, वैसा ही उन्होंने अपने प्राभृतग्रन्थों में प्ररूपित किया है। इसका सप्रमाण प्रतिपादन दशम अध्याय (प्र.४/ शी.२) में पं० दलसुख मालवणिया के 'दार्शनिक विकासवाद' के निरसन-प्रसंग में द्रष्टव्य है। तथा कोई भी दिगम्बराचार्य उनके द्वारा प्ररूपित वस्तुतत्त्व से असहमत नहीं था, अपितु सभी आचार्य उनके वचनों को प्रमाणस्वरूप मानते थे। इसीलिए प्रथम शताब्दी ई० के भगवती-आराधनाकार शिवार्य से लेकर सभी उत्तरकालीन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द की गाथाएँ आत्मसात् की हैं अथवा प्रमाणरूप में उद्धृत की हैं। इसके प्रमाण दशम अध्याय में द्रष्टव्य हैं। अतः वीरसेन, जिनसेन आदि के द्वारा कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न किये जाने का यह तीसरा कारण भी असंगत है। २.४. नाम-अनुल्लेख का कारण : नाम से अनभिज्ञता
वीरसेन स्वामी ने 'षट्खण्डागम' की धवलाटीका में न केवल कुन्दकुन्द के ग्रन्थों का नामोल्लेख किया है, अपितु उनके वचन प्रमाणरूप में भी उद्धृत किये हैं।
और इस प्रकार उन्होंने 'वक्तृप्रामाण्याद् वचनप्रामाण्यम्' इस स्वमान्य न्याय के अनुसार कुन्दकुन्द को प्रामाणिक वक्ता स्वीकार किया है। कुन्दकुन्द ने जैनदर्शन के जिस द्रव्यगुणपर्यायात्मक अद्वैतवाद का स्पष्टीकरण किया है, उसका स्पष्टीकरण वीरसेन स्वामी
११. पं. सुखलाल जी संघवी : तत्त्वार्थसूत्र (विवेचनसहित)/ प्रस्तावना / पृष्ठ ७३-७४ । १२. "Also why his unacceptable teachings were not refuted by any scholar and
how it came about that his works continued to be copied even when disrecognized, for over the long centuries." The Date of Kundkundācārya, Aspects of Jainology, Vol III, p.189..
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