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गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण / १९१ के समयसारादि ग्रन्थों के रचयिता होने की जानकारी किसी प्राचीन लिखित स्रोत से प्राप्त हुई थी। इस तरह यह बात समझ में आ जाती है कि ईसा की बारहवीं शताब्दी से पहले के ग्रन्थकारों ने कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया। इसका एक मात्र कारण उनका इस बात से अनभिज्ञ होना था कि समयसारादि ग्रन्थों के कर्ता वही कुन्दकुन्द हैं, जिनके नाम से कुन्दकुन्दान्वय प्रसूत हुआ है।
अतः दसवीं शती ई० के पूर्व तक कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर टीका का न लिखा जाना तथा बारहवीं शती ई० के पूर्व तक ग्रन्थकारों द्वारा कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख न किया जाना इस बात का प्रमाण नहीं है कि कुन्दकुन्द दसवीं शताब्दी ई० के सौ दो सौ वर्ष पूर्व ही हुए थे। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर पहली टीका भले ही दसवीं शती ई० में लिखी गई हो, पर उनके ग्रन्थों की गाथाएँ ईसा की पहली, दूसरी, पाँचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं आदि शताब्दियों में रचित भगवती-आराधना आदि अनेक ग्रंथों में आत्मसात् की गयी हैं अथवा प्रमाणरूप में उद्धृत की गयी हैं।२१ यह इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध तथा ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध) में हुए थे।
जहाँ तक टीका के न लिखे जाने का प्रश्न है, उसका कारण यह प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के कुछ ही समय बाद जैनसिद्धान्त को संक्षेप एवं सरल भाषा में प्रस्तुत करनेवाला तत्त्वार्थसूत्र जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सामने आ गया। वह इतना लोकप्रिय हुआ कि उसने आचार्यों को उसी पर टीकाएँ लिखने के लिए प्रेरित किया। इसीलिए हम देखते हैं कि पूज्यपादस्वामी (५वीं शती ई०) के पहले से ही उस पर टीकाएँ लिखी जाने लगी और यह क्रम श्रुतसागरसूरि (१५ वीं शती ई०) तक अनवरत चलता रहा। फलस्वरूप १० वीं शती ई० के पूर्व तक कुन्दकुन्द के अध्यात्मप्रधान ग्रन्थों पर टीका का अवसर नहीं आ पाया।
निष्कर्ष यह कि आचार्य कुन्दकुन्द न तो यापनीयपरम्परा में दीक्षित होकर उससे अलग हुए थे, न ही उन्होंने भट्टारकसम्प्रदाय को अंगीकर कर बाद में उसका परित्याग किया था। वे शुरू से ही दिगम्बराचार्य श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा में दीक्षित हुए थे और अन्त तक उसी में स्थित रहे।
दंसणणाणवियप्पो अवियप्पं चावि अप्पादो॥ १५९॥ पंचास्तिकाय।"
द्रव्यस्वभावप्रकाशक-नयचक्र / गाथा ४०४ के समर्थन में उद्धृत। २१. देखिये, आगे दशम अध्याय / प्रथम प्रकरण।
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