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१८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०९
३. आदिपुराणकार आचार्य जिनसेन ने पार्श्वाभ्युदय में वीरसेन स्वामी, उनके शिष्य विनयसेन तथा स्वयं को 'मुनि' 'गरीयान् मुनि' और 'मुनीश्वर' विशेषणों से विशेषित किया है। तथा प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति के कर्त्ता जयसेन ने, जो सेनगण (संघ) के ही थे, अपने गुरु एक अन्य वीरसेन को 'जातरूपधर' और निर्ग्रन्थपदवीधारी बतलाया है । " दर्शनसार के रचयिता देवसेन ने जिनसेन के शिष्य गुणभद्र के लिए 'महातपस्वी, पक्षोपवासी, भावलिंगी मुनि' इन शब्दों का प्रयोग किया है।
ये तीन हेतु इस बात के प्रमाण हैं कि वीरसेन, जिनसेन आदि आचार्य भट्टारकपीठ पर आसीन अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारक नहीं थे। उनके साथ जुड़ी 'भट्टारक' उपाधि उन्हें उनकी विद्वत्ता के अभिनन्दनार्थ प्रदान की गई थी । ७
यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाय कि सेनसंघी वीरसेन स्वामी भट्टारक सम्प्रदायवाले भट्टारक थे, तो सेनसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं है, इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द भट्टारकसम्प्रदाय के नहीं थे।
यदि कहा जाय कि भट्टारकसम्प्रदाय से अलग हो जाने के कारण सेनसंघ की भट्टारक पट्टावली में कुन्दकुन्द का नाम नहीं है, तो प्रश्न उठता है कि जब भट्टारकपट्टावली में कुन्दकुन्द का नाम ही नहीं है, तब यह किस आधार पर माना जा सकता है कि वे भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे । प्रमाण के अभाव में ऐसा मानना तो कपोलकल्पना मात्र है।
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४. श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजभृङ्गः
श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिर्गरीयान् ।
तच्चोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम् ॥ पार्श्वाभ्युदय ४ /७१ । ५. सूरी श्रीवीरसेनाख्यो मूलसङ्खेऽपि सत्तपाः ।
नैर्ग्रन्थ्यपदवीं भेजे
जातरूपधरोऽपि यः ॥ जयसेनप्रशस्ति / प्रवचनसार / पृ.३४५ । ६. सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो 'सयलसत्थविण्णाणी ।
सिरिपउमणंदिपच्छा
चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३०॥ दिव्वणाणपरिपुण्णो ।
भावलिंगो य ॥ ३१॥
विणयसेणस्स ।
सग्गलोयस्स ॥ ३२ ॥ दर्शनसार ।
तस्सय सीसो गुणवं गुणभद्दो पक्खुववासुट्ठमदी महावो तेण पुणो विय मिच्चुं णाऊण मुणिस्स सिद्धंतं घोसित्ता सयं गये
७. श्रीवीरसेन
इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः ।
स नः पुनातु पूतात्मा वादिवृन्दारको मुनिः ॥ ५५ ॥ लोकवित्त्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् ।
वाङ्मताऽवाङ्मिता यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥ ५६ ॥ आदिपुराण / प्रथम पर्व |
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