________________
अ०९
गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण / १८३ को श्रुतकेवली-कथित धर्म का उपदेश गुरुपरम्परा से प्राप्त था। उसका ही निरूपण उन्होंने अपने ग्रन्थों में किया है। इसी का बोध कराने के लिए कुन्दकुन्द ने स्वयं को श्रुतकेवली भद्रबाहु का परम्पराशिष्य कहा है। ऐसा कहकर कुन्दकुन्द ने न केवल अपने वचनों की, अपितु अपनी गुरुपरम्परा की भी प्रामाणिकता दर्शायी है, क्योंकि उन्हें श्रुतकेवली-भणित उपदेश गुरुपरम्परा से ही प्राप्त हुआ था। अतः अपने उपदेश को श्रुतकेवली-भणित बतलाकर कुन्दकुन्द ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उनके गुरु-प्रगुरु भी श्रुतकेवली भद्रबाहु की ही परम्परा के थे।
कुन्दकुन्द-नाम-अनुल्लेख का कारण
इसी प्रकार अनेक दिगम्बर-ग्रन्थकारों ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का स्मरण नहीं किया है। विभिन्न विद्वानों ने इसके भी अलग-अलग कारण बतलाये हैं, जो असंगत हैं। यहाँ उनका क्रमशः निरसन किया जा रहा है। २.१. आचार्य हस्तीमल जी के मत का निरसन
आचार्य हस्तीमल जी ने कहा है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी और उनके शिष्य-प्रशिष्य जिनसेन, गुणभद्र, हरिवंशपुराणकार जिनसेन आदि भट्टारकसम्प्रदाय के थे तथा कुन्दकुन्द भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित होकर उससे अलग हो गये थे, इसलिए वीरसेन, जिनसेन, गुणभद्र, लोकसेन आदि ने अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया। ये वचन प्रामाणिक नहीं हैं। इसके निम्नलिखित कारण हैं
१. वीरसेन स्वामी सेनसंघी थे और सेनसंघ की पट्टावली में उन्हें किसी भी स्थान के भट्टारकपीठ पर आसीन नहीं बतलाया गया है। इन्द्रनन्दी ने श्रुतावतार में लिखा है कि पहले उन्होंने चित्रकूटपुर में रहकर अपने गुरु से सिद्धान्त पढ़ा, तत्पश्चात् वाटग्राम में आकर वहाँ के जिनमन्दिर में रहते हुए षट्खण्डागम पर टीका लिखी। इससे सिद्ध है कि वे किसी भट्टारकपीठ के अधीश नहीं थे।
२. वीरसेन स्वामी ८वीं शताब्दी ई० में हुए थे (देखिये, अध्याय १०/ प्रकरण १/ शीर्षक १०.१) और १२ वीं शताब्दी ई० के पूर्व भट्टारकसम्प्रदाय का उदय नहीं हुआ था।
२. देखिये, अध्याय ८/ प्रकरण २/ शीर्षक १/ उपान्त्य अनुच्छेद। ३. श्रुतावतार / कारिका १७७-१८३।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org