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१८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अपने गुरु के नाम का निर्देश नहीं किया। इससे स्पष्ट है कि प्राचीनकाल में प्रायः निःस्पृह ग्रन्थकारों के द्वारा अपने ग्रन्थों में स्वयं के तथा स्वगुरु के नाम का उल्लेख करने की परम्परा नहीं थी। इसका कारण था ख्याति की आकांक्षा का अभाव। अतः आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा अपने गुरुनाम का उल्लेख न किया जाना किसी अन्य संभावना को जन्म नहीं देता।
कुन्दकुन्द ने जो बोधपाहुड (गा. ६१-६२) में श्रुतकेवली भद्रबाहु को अपना गमकगुरु (परम्परागुरु) कहकर उनका जयकार किया है, उसका विशेष प्रयोजन है। वह है अपने ग्रंथों में किये गये प्ररूपण की प्रामाणिकता ज्ञापित करना अर्थात् यह प्रकट करना कि वह स्वकल्पित नहीं है, अपितु श्रुतकेवली द्वारा वर्णित सर्वज्ञ के उपदेश पर आश्रित है, जैसा कि उनके निम्नलिखित वचन से स्पष्ट होता है-"वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवलीभणियं" (स.सा./गा. १)।
षट्खण्डागम के टीकाकार वीरसेन स्वामी टीका के प्रारंभ में ग्रन्थ के कर्ताओं का परिचय देते हुए भगवान् महावीर, गौतमस्वामी और पुष्पदन्त तथा भूतबलि को षट्खण्डागम का कर्ता बतलाते हैं और प्रश्न करते हैं कि यहाँ कर्ता का प्ररूपण किसलिए किया गया? और इसके उत्तर में कहते हैं-"शास्त्र की प्रामाणिकता दिखलाने के लिए, क्योंकि वक्ता की प्रामाणिकता से ही वचन की प्रामाणिकता का पता चलता है, ऐसा न्याय है।"१
इसी न्याय का अनुसरण करते हुए कुन्दकुन्द ने अपने वचनों की प्रामाणिकता दर्शाने के लिए उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु के उपदेश पर आश्रित बतलाया है।
__ आचार्य कुन्दकुन्द को अपने ग्रन्थों में वर्णित जीवादि के स्वरूप की प्रामाणिकता दर्शाना विशेषरूप से आवश्यक हो गया था, क्योंकि उनके समय में मूलसंघ के अन्तर्गत कुछ ऐसे मुनिसंघ विद्यमान थे, जो श्रुतकेवली भद्रबाहु के उपदेश से च्युत होकर लौकिक (पार्श्वस्थ-कुशील) मुनियों का आचरण करते थे। वे मन्दिरों में नियतवास करते थे, कृषि-वाणिज्य करते थे, यक्ष-यक्षिणियों को पूजते और पुजवाते थे, मंत्रतंत्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि ऐहिक कर्मों में प्रवृत्त होते थे, गृहस्थों के विवाह-सम्बन्ध भी तय कराते थे। अतः जिनशासन के मूलस्वरूप की रक्षा के लिए कुन्दकुन्द को यह बतलाना आवश्यक हो गया था कि उक्त मुनिसंघों का यह आचार-विचार सर्वज्ञ प्रणीत नहीं, अपितु स्वकल्पित है। सर्वज्ञप्रणीत धर्म वही है, जो अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा कथित है। उसमें मुनियों के लिए उपर्युक्त प्रवृत्तियों का निषेध है। कुन्दकुन्द १. "किमर्थं कर्ता प्ररूप्यते? शास्त्रस्य प्रामाण्यप्रदर्शनार्थं, 'वक्तृप्रामाण्याद् वचनप्रामाण्यम्' इति
न्यायात्।" धवलाटीका / षट्खण्डागम / पु.१ / १,१,१/ पृ.७३ ।
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