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नवम अध्याय
गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण
गुरुनाम-अनुल्लेख का कारण
जैसा कि अष्टम अध्याय में सूचित किया गया है, आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वरचित ग्रन्थों में अपने साक्षाद् गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। मुनि कल्याणविजय जी ने इसका कारण यह बतलाया है कि कुन्दकुन्द शुरू में यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, किन्तु आगे चलकर वे अपने गुरु और यापनीयमत की धर्मविरुद्ध मान्यताओं और हीनप्रवृत्तियों के विरुद्ध हो गये। अन्त में उन्होंने अपने गुरु का साथ छोड़ दिया और पृथ्क दिगम्बर-संघ स्थापित कर लिया। इसीलिए उन्होंने अपने गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। (देखिये, अ.२ / प्र.२ / शी.३)।
आचार्य हस्तीमल जी ने यह कारण बतलाया है कि कुन्दकुन्द प्रारंभ में भट्टारक थे। जब उन्हें धर्म के तीर्थंकरप्रणीत वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ, तब उनके मन में अपने भट्टारक गुरु के प्रति अश्रद्धा हो गयी और वे उनसे अलग हो गये। इसी कारण उन्होंने अपने ग्रन्थों में उनके नाम का स्मरण नहीं किया।
इनमें प्रथम मत की असत्यता का उद्घाटन द्वितीय अध्याय में 'कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीयमतावलम्बी होने का मत असत्य' (अ.२/प्र.२/शी.७) शीर्षक से किया जा चुका है और द्वितीय मत की अप्रामाणिकता अष्टम अध्याय में दर्शायी जा चुकी है। कुन्दकुन्द ने अपने गुरु के नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया, इसका समाधान इतना जटिल नहीं है कि उसे पाने के लिए ऐसी कल्पनाएँ करनी पड़ें, जिनका कुन्दकुन्द से दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। ___समाधान बहुत सरल है। हम देखते हैं कि षट्खण्डागम के कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि, कसायपाहुड़ के कर्ता गुणधर, तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपिच्छ, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद स्वामी आदि अन्य दिगम्बराचार्यों ने भी अपने ग्रंथों में स्वगुरुओं के नाम का स्मरण नहीं किया है। यहाँ तक कि अपने भी नाम की चर्चा नहीं की। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, पतञ्जलि ने योगदर्शन में और वाल्मीकि ने रामायण में
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