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गुरुनाम तथा कुन्दकुन्दनाम-अनुल्लेख के कारण / १८५ इसके उत्तर में यदि आचार्य हस्तीमल जी कहें कि नन्दिसंघ की भट्टारकपट्टावली में कुन्दकुन्द का नाम है, तो प्रश्न खड़ा होता है कि तब यह किस आधार पर कहा जा सकता है कि वे बाद में भट्टारकसम्प्रदाय से अलग हो गये थे? कुन्दकुन्द के भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित होने और बाद में उससे अलग होने के साहित्यिक या शिलालेखीय प्रमाण के अभाव में ऐसा मान लेना कपोलकल्पना के अतिरिक्त क्या है?
निष्कर्ष यह कि न तो सेनसंघ की पट्टावली केवल भट्टारकपट्टावली है, न ही नन्दिसंघ की। दोनों में अपने-अपने संघ के मुनियों का भी उल्लेख है और भट्टारकों का भी। इसलिए सेनसंघ के आचार्य वीरसेन, जयसेन, गुणभद्र आदि मुनि ही थे, भट्टारकपीठों पर अभिषिक्त भट्टारक नहीं। अतः "ये भट्टारक थे और कुन्दकुन्द भट्टारकसम्प्रदाय में दीक्षित होने के बाद उससे अलग हो गये थे, इसलिए इन भट्टारकग्रन्थकारों ने द्वेषवश कुन्दकुन्द के नाम का उल्लेख नहीं किया" आचार्य हस्तीमल जी का यह कथन मिथ्या सिद्ध हो जाता है।
यह कथन इसलिए भी मिथ्या है कि नन्दिसंघ के पीठाधीश भट्टारकों ने न केवल अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द के नाम का आदरपूर्वक उल्लेख किया है, अपितु स्वयं को उनके अन्वय का बतलाकर अपने को गौरवान्वित भी किया है। पन्द्रहवीं शती ई० के भट्टारक सकलकीर्ति ने अपने वीरवर्धमानचरित के मंगलाचरण में आचार्य कुन्दकुन्द की निम्नलिखित शब्दों में वन्दना की है
अन्ये ये बहवो भूताः कुन्दकुन्दादिसूरयः। सुकवीन्द्राश्च निर्ग्रन्थाः ह्य सन्ति सर्वे महीतले॥ १/५६॥ पञ्चाचारादिभूषा ये पाठका जिनवाग्रताः।
वन्द्याः स्तुता मया मेऽत्र दधुः स्वस्वगुणांश्च ते॥ १/५७॥ इस प्रकार भट्टारकसम्प्रदाय में तो कुन्दकुन्द का नाम आदरपूर्वक लिया जाता था, किन्तु जो ग्रन्थकार भट्टारकसम्प्रदाय के नहीं थे, उन्होंने ही अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द का स्मरण नहीं किया। यहाँ तक कि समयसारादि के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र ८. क- "संवत् १३८० वर्षे माघसुदि ७ सनौ श्रीनन्दिसङ्के बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे
कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० (भट्टारक) शुभकीर्तिदेव तत्शिष्य सर्वीति ---" भट्टारकसम्प्रदाय/
लेखांक २२८। ख-"श्रीबलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीमहि (नन्दि) सङ्के कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ०
(भट्टारक) श्रीवसन्तकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ० श्री विशालकीर्तिदेवाः।" भट्टारकसम्प्रदाय/ लेखांक २४४।
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