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________________ अन्तस्तत्त्व [सत्रह] ४८५ ४८९ ४९० ४९७ १३. कुन्दकुन्द साहित्य में स्याद्वाद-सप्तभंगी, तत्त्वार्थसूत्र में नहीं ४८२ - निरसन : कुन्दकुन्दसाहित्य 'तत्त्वार्थ' के सूत्रों की रचना का आधार ४८२ १४. बहिरात्मादि भेद पूज्यपाद (७ वीं शती ई०) से गृहीत ४८३ ___निरसन : श्रुतकेवली के उपदेश से गृहीत ४८३ सप्तम प्रकरण-डॉ० चन्द्र के अपभ्रंश-प्रयोग-हेतुवाद का निरसन अष्टम प्रकरण-प्रो० हीरालाल जी जैन के मत का निरसन ४८९ १. प्रो० हीरालाल जी का मत १.१. पहला लेख : 'शिवभूति और शिवार्य' लेखक : प्रो० हीरालाल जी जैन १.२. दूसरा लेख : 'जैन इतिहास का एक विलुप्त अध्याय' लेखक : प्रो. हीरालाल जी जैन २. निरसन ५०९ २.१. कल्पसूत्र के शिवभूति और बोटिक शिवभूति में एकत्व असंभव ५०९ २.२. शिवार्य आपवादिक सवस्त्रलिंग के विरोधी ५११ २.३. दिगम्बर-परम्परा ऐतिहासिक दृष्टि से पाँच हजार वर्ष प्राचीन ५११ २.४. भद्रबाहु-द्वितीय शिवभूति के शिष्य नहीं । ५११ २.५. कुन्दकुन्द भी भद्रबाहु-द्वितीय के शिष्य नहीं ५१२ २.६. शिवार्य कुन्दकुन्द से परवर्ती ५१५ २.७. अनहोनी को होनी बनाने का अद्भुत कौशल ५१५ २.८. जैन इतिहास का मनगढन्त अध्याय २.९. प्रथम लेख : 'शिवभूति, शिवार्य और शिवकुमार' लेखक : पं० परमानंद जी जैन शास्त्री, सरसावा २.१०. द्वितीय लेख : 'क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं?'लेखक : न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी जैन कोठिया ५२१ २.१०.१. स्वामी' उपाधि का प्रयोग पात्रकेसरी आदि के लिए भी ५२२ २.१०.२.नियुक्तिकार भद्रबाहु और समन्तभद्र में सैद्धान्तिक मतभेद ५२४ ५१६ ५१७ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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