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अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १५१ समाप्त हो जायेगी। ईसा की १७वीं शताब्दी में उत्तरभारत में पं० बनारसीदास जी आदि विद्वानों ने इसी विधि से भट्टारकपीठों का उन्मूलन किया था।
वस्तुतः भट्टारकपीठों के कायम रहने में बुराई नहीं है, बुराई है भट्टारकों की गुरुरूप-मान्यता में। इस मान्यता ने ही भट्टारकों को राजाओं के समान ठाठ-बाट से जीवन व्यतीत करनेवाला और श्रावकों का निरंकुश स्वामी बना दिया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने श्रावकों का अत्याचारपूर्वक शोषण किया। अतः पुराने भट्टारकपीठ कायम रहें,
और जहाँ आवश्यक हों, नये भी स्थापित किये जायँ, किन्तु भट्टारकों की गुरुवत् मान्यता समाप्त की जाय, गुरु के प्रतीकभूत पिच्छी और कमण्डलु का भी उनसे परित्याग कराया जाय, श्रावकों पर उनका धार्मिक अनुशासन भी न रहे। वे केवल तीर्थ के प्रबन्धक और रक्षक के कर्त्तव्य निभायें। इसके लिए उन्हें यथोचित वेतन दिया जाय। इससे भट्टारकों के अस्तित्व पर किसी को भी आपत्ति नहीं होगी।
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