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१५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०७ "इन सभी समस्याओं के हल के लिए आचार्यश्री ने सुझाव दिया है कि "सभी जैन तीर्थों पर बालब्रह्मचारी, गृहत्यागी, व्रती, धर्मात्मा, विद्वान्, मुनिभक्त, ईमानदार भट्टारकों की स्थापना होनी चाहिए, ताकि तीर्थों पर साधुसन्त शान्ति से ठहरकर अपनी आत्मसाधना कर सकें, तीर्थों का भी संरक्षण हो सके, पुरातन जिनालयों का जीर्णोद्धार हो सके तथा समाज व धर्म का भी विकास हो सके।" (शोधादर्श-३४ / पृ. १५-१६)।
आचार्य दयासागर जी के इन विचारों पर टिप्पणी करते हुए सम्पादक जी लिखते हैं-"आचार्यश्री ने जिस प्रकार के भट्टारक-स्वामियों को तीर्थक्षेत्र पर स्थापित करने का सुझाव दिया है, वे आयेंगे कहाँ से, यह हमारी अल्प बुद्धि में नहीं आता। वैसे भी इतिहास साक्षी है कि मठाधीश हो जाने पर कोई भी साधु नहीं रह जाता।" (वही)।
आचार्य जी के उपर्युक्त वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि वे सभी तीर्थक्षेत्रों पर भट्टारकपीठों की स्थापना इसलिए चाहते हैं कि वहाँ पर उन जैसे साधुओं के ठहरने और आहार-पानी की समुचित व्यवस्था हो सके, जिससे वे वहाँ महीनों ठहरकर शान्ति से आत्मसाधना कर सकें। आचार्य जी को विश्वास है कि ऐसी व्यवस्था तीर्थों पर भट्टारकपीठों की स्थापना से ही संभव है। इससे स्पष्ट होता है कि तीर्थों पर आवास और आहार-पानी की सुविधा चाहनेवाले मुनि भी किसी भट्टारक को, उसे उपलब्ध गुरु की मान्यता का परित्याग नहीं करने देंगे। इसी प्रकार जिन पण्डितों को भट्टारकों से पुरस्कार, उपाधियाँ और सम्मान प्राप्त होते हैं, वे भी उन्हें ऐसा करने से रोकेंगे। अतः भट्टारकों के द्वारा स्वयं ही गुरु की मान्यता का विसर्जन अर्थात् जिनशासन में की गयी मिलावट का परित्याग संभव नहीं है। इसलिए इस मिलावट को दूर करने का एक ही उपाय है- श्रावकों को प्रबोधित करना। पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखकर, छोटी-छोटी पुस्तकें प्रकाशित और वितरित कर तथा भाषण और प्रवचन कर श्रावकों को 'विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः' (र.का.श्रा.) इत्यादि शास्त्रवचनों के प्रमाण देकर गुरु के लक्षण समझाने होंगे, तथा बतलाना होगा कि भट्टारक सवस्त्र, आरम्भी, परिग्रही और विषयाशाधीन होते हैं, अतः वे गुरु नहीं हैं। इसलिए उन्हें न तो 'नमोऽस्तु' किया जाय, न उनके चरण छुए जायँ। वे क्षुल्लक और एलक भी नहीं हैं, अतः उन्हें 'इच्छाकार' (इच्छामि) भी न किया जाय। उन्हें केवल 'जय जिनेन्द्र' किया जाना चाहिए। श्रावकों को यह भी समझाना होगा कि भट्टारकों को 'स्वामी', 'गुरु' या 'जगद्गुरु' शब्दों से भी सम्बोधित न किया जाय तथा उनके किसी उपदेश या परामर्श को शास्त्रसम्मत होने पर ही स्वीकार किया जाय, अन्यथा अस्वीकार कर दिया जाय। इस तरह श्रावकों को प्रबोधित करते रहने पर धीरे-धीरे सभी श्रावक सत्य को समझेंगे और भट्टारकों को गुरु मानना छोड़ देंगे। तब उनकी गुरुमान्यता स्वतः
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