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अ०८/प्र० ७
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १४९ ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो अपने राजसी ठाठबाट एवं प्रभुत्व को स्वेच्छा से त्याग देगा? और यदि कोई भट्टारक त्यागना भी चाहे, तो अन्य भट्टारक उसे ऐसा नहीं करने देंगे, क्योंकि फिर उनसे भी ऐसी अपेक्षा की जायेगी। तथा जिन मुनिसंघों और पण्डितों के स्वार्थ भट्टारकपरम्परा से जुड़े हुए हैं, वे भी उसे ऐसा करने से रोकेंगे। यह अच्छी बात है कि भट्टारक, मुनियों को अपना गुरु मानते हैं, किन्तु बुरी बात यह है कि वे श्रावकों से अपने को भी गुरु मनवाते हैं और कुछ मुनिसंघ भी भट्टारकों की पीठ थपथपाते हैं तथा चाहते हैं कि श्रावक उन्हें भी गुरु मानें, उनके अनुशासन में रहें। ऐसे ही मुनियों के द्वारा आज यह आवाज उठायी जा रही है कि उत्तरभारत में पुनः भट्टारपीठों की स्थापना की जाय। इस आवाज के पीछे क्या रहस्य है, इसका बोध एक वर्तमान आचार्य श्री दयासागर जी के वक्तव्य से होता है। शोधादर्श-३४ (मार्च, १९९८) के सम्पादक श्री अजित प्रसाद जी जैन ने अपने सम्पादकीय में लिखा है
"दिगम्बर जैन आचार्य श्री दयासागर ने विगत वर्ष अपना चातुर्मास श्री दिगम्बर सिद्धक्षेत्र कोठी पावागढ़ (गुजरात) में स्थापित किया था। अपने चातुर्मास स्थल से उन्होंने "श्री दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्रों की रक्षा कैसे हो" शीर्षक से एक परिपत्र प्रसारित किया था, जो सम्बोधित तो श्रवणबेलगोला मठ के भट्टारक स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामी जी को था, पर जिसकी प्रतियाँ अन्यों को भी प्रेषित की गयी थीं। इसकी एक प्रति हमको भी प्राप्त हुई थी। इस परिपत्र में आचार्यश्री ने उत्तरभारत में दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्रों की वर्तमान में दुर्व्यवस्था और कुप्रबन्ध पर घोर चिन्ता प्रकट करते हुए इसके लिए उनके असंयमी गृहस्थ-प्रबन्धकों को जिम्मेदार ठहराया है, जो "क्षेत्र के रक्षक के रूप में भक्षक बन बैठे हैं, क्षेत्र की सम्पत्ति व आय को हड़प रहे हैं, उसका दुरुपयोग कर रहे हैं। क्षेत्रों पर ईमानदार पुजारी व मैनेजर देखने को नहीं मिलते, क्षेत्रों की धर्मशालाएँ लॉज का रूप ले रही हैं, जहाँ हर प्रकार के पापकर्म होने लगे हैं, क्षेत्रों पर विवाह-शादी सम्पन्न कराये जाने लगे हैं, हनीमून भी मनाये जाने लगे हैं। तीर्थों की मर्यादा. पवित्रता व शद्धता समाप्त हो रही है तथा अतिशय घट रहे हैं। जैनागम में, समाज में दिगम्बर साधुओं का तीर्थों पर रहकर आत्मसाधना करने की बात कही जाती है, पर साधु क्षेत्र पर रहे कैसे? असंयमियों ने क्षेत्रों पर असंयम का इतना विस्तार कर रखा है कि संयमी को वहाँ भी आत्मसाधना करना मुश्किल हो गया है। क्षेत्रों पर साधुओं के ठहरने का कोई उचित स्थान नहीं है। यदि कहीं त्यागी-सन्त-निवास का निर्माण किया भी गया है, तो असंयमियों ने उस पर कब्जा जमा लिया है। यदि किसी साधु ने क्षेत्र पर रहना चाहा, उसे उसके कटु अनुभव झेलने पड़े। क्षेत्र पर साधुओं के आहार-पानी की भी समुचित व्यवस्था नहीं हो पाती ---।"
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