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________________ १४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०७ में अपनी प्रतिक्रिया 'धर्ममंगल' के १६ मई, १९९७ के अंक में प्रकाशित की थी, जिसका सारांश स्व० अजितप्रसाद जी जैन द्वारा सम्पादित शोधादर्श-३४ (मार्च, १९९८) में वर्णित किया गया है। 'धर्ममंगल' की सम्पादिका ने अनेक भट्टारकपीठों के अधिकार में रहनेवाली धर्मशालाओं, छात्रावासों, ग्रन्थालयों और विद्यापीठों को घोर अव्यवस्था से ग्रस्त देखा है। किसी मठ से प्राचीन जैनप्रतिमाओं, ग्रन्थों और सोने-चाँदी के भारी उपकरणों के नदारद होने की जानकारी प्राप्त की है। किसी मठ के भट्टारक स्वामी के कामकाण्डों की स्थानीय समाचारपत्रों में चर्चायें पढ़ी हैं। मेरा भी कुछ ऐसा ही अनुभव है। मैंने एक मठ के भट्टारक जी को अपने देशी-विदेशी जजमानों के साथ दर्शन, भोजन, आवास, रात्रि को रसपान, वाहन-व्यवस्था आदि में पक्षपात करते हुए पाया है। आदर्श व्यवस्था केवल श्रवणबेलगोल के मठ में दृष्टिगोचर हुई है। वहाँ के भट्टारक श्री चारुकीर्ति जी, न केवल सुप्रबन्धक हैं, अपितु विद्वान् , विद्वत्प्रेमी एवं सौम्य भी हैं। उन्होंने आधुनिक एवं तकनीकी शिक्षा के विविध संस्थान एवं जैनविद्या-अनुसन्धान केन्द्र खोलकर वहाँ का जो विकास किया है और साधनहीन जैन छात्रों के उत्थान का जो पथ प्रशस्त किया है, वह स्तुत्य है। जिनशासन में मिलावट को रोकना आवश्यक किन्तु प्रश्न सुप्रबन्ध या विकास का नहीं है, प्रश्न है निर्ग्रन्थ-जिनशासन में एक सग्रन्थ को निर्ग्रन्थ के तुल्य गुरु की मान्यता दिये जाने और दिलाये जाने का तथा पिच्छी-कमण्डलु ग्रहणकर एवं कराकर आगमज्ञानरहित लोगों में यह विश्वास पैदा किये जाने का कि उक्त मान्यता आगमोक्त है। निर्ग्रन्थ-जिनशासन में यह मिलावट जिनशासन के मूलस्वरूप को नष्ट करने का प्रयास है, मोक्षमार्ग को अमोक्षमार्ग बना देने की चेष्टा है, महावीर के उपदेश के साथ धोखाधड़ी है, न केवल महावीर के उपदेश के साथ धोखाधड़ी, बल्कि मोक्ष के समीचीन मार्ग की तलाश करनेवाले मोक्षार्थियों के साथ भी यह उनकी श्रद्धा को मिथ्या बनाकर उन्हें उन्मार्ग पर ढकेलने की फितरत है। वस्तुतः यह जिनशासन के साथ शत्रुता का बर्ताव है। इस मिलावट का परित्याग ही जिनशासन की सच्ची रक्षा और सेवा हो सकती है। इससे ही भट्टारकपीठों के अनुशासन में रहनेवाले श्रावक, भट्टारकों द्वारा किये जानेवाले शोषण एवं निरंकुशता से छुटकारा पा सकते हैं तथा भट्टारक भी चरित्रभ्रष्ट होने से बच सकते हैं। किन्तु इतनी फितरत से प्राप्त हुई गुरुरूप, बल्कि जगद्गुरुरूप मान्यता को कोई भी भट्टारक स्वेच्छा से त्यागने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि मोक्षार्थी के अतिरिक्त Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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