________________
अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१४५
सर्वे ते मानयन्त्येव निःशंकां निखिलार्थदाम्। मतिश्रुतावधि-श्लिष्ट-शुद्ध-दृग्धारकाः खलु॥ ७७॥ क्वचिदपि जिनेन्द्रस्य चाज्ञा ऋते सुरेश्वराः। न कुर्वन्त्यपरं कार्यं नानाभवप्रदायकम्॥ ७८॥ यूयं वदथ भो माः पारम्पर्यात्समागताः। भवद्भिरभिषेकाद्याः कथमुत्थापिताः खलु ॥ ७९ ॥ सुरेन्द्राणामपि नैव सामर्थ्यं स्यात्कदाचन। जिनाज्ञालोपने मूढाः भवद्भिः लोपिताः कथम्॥ ८०॥ यूयं तदधिकाः किं वै अतः उत्थापितं प्रभोः। वाक्यं सर्वेन्द्रपूज्यं च सर्वत्रापि निरंकुशम् ॥ ८१॥ वदध्वं पुनः भो मूर्खा ह्यसत्याः स्युरिमाः क्रियाः। सर्वे ग्रन्था असत्याः स्युः सर्वसन्देहनाशकाः॥ ८२॥ युष्माकं यदि श्रद्धा स्यात् दृढा जिनागमस्य वै। तदा किं न कुरुध्वं भो तत् वाक्यं शिवदायकम्॥ ८३॥ पक्षपातं त्यजध्वं च ग्रन्थपक्षं जगन्नुतम्। यूयं श्रद्धानिका नित्यं कुरुध्वं धर्मसिद्धये॥ ८४॥
(सूर्यप्रकाश / पृ. १६३ से १६७) "पाठकजन! देखा, कितनी भारी झड़प का यह उल्लेख है! इसी तरह का और भी कितना ही संघर्षात्मक कथन है, जो भट्टारकों को, ग्रन्थकार के शब्दों में जिनात्तपुरुषों को, गुरु न मानने से सम्बन्ध रखता है, जिसमें भट्टारकों को गुरु न मानने वालों को सप्तम नरकगामी तक बतलाया है,१३२ और जिसे यहाँ छोड़ा जाता है। अस्तु, इतनी खैर हुई कि ग्रन्थकार ने उत्तर में तेरहपन्थियों को कुछ बोलने नहीं दिया, नहीं तो समवसरण सभा का रंग कुछ दूसरा ही हो जाता और इस तरह से निरर्गल बोलने तथा पूछनेवाले भगवान् के ज्ञान-विज्ञान की सारी कलई खुल जाती।
"इस प्रकार ग्रन्थकार ने अपनी इस कृति द्वारा भगवान् महावीर जैसे परम वीतरागी और ब्रह्मज्ञानी पूज्य महान् पुरुष को एक अच्छा खासा पागल, विक्षिप्तचित्त, अविवेकी, कषायवशवर्ती और कलुषितहृदय, क्षुद्रव्यक्ति प्रतिपादित किया है। उसका यह घोर अपराध
१३२. येऽधमा नैव मन्यन्ते गुरुं ज्ञानस्य दायकम्।
ते यास्यन्ति न संदेहः सप्तमे श्वभ्रकूपके॥ पृ. १७७ ।।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org