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________________ १४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ७ किसी तरह भी क्षमा किये जाने के योग्य नहीं है। एक स्वार्थसाधू पामर मनुष्य अपनी स्वार्थसाधना में अंधा होकर और कषायों में डूब कर जाने-अनजाने पूज्यपुरुषों तक को कितना नीचे गिरा देता है, यह इस प्रकरण से बहुत कुछ स्पष्ट है, जिसमें यहाँ तक चित्रित किया गया है कि भविष्य में एक खास ढंग से अभिषेक पूजा को न होते हुए देखकर भगवान् एकदम बिगड़ बैठे हैं ! ग्रन्थकार ने अपनी कुत्सित वासनाओं और कषायभावनाओं को चरितार्थ करने के लिये भगवान् महावीर के पवित्र नाम का आश्रय लिया है, उसे अपना आला अथवा हथियार बनाया है, अर्थात् बातें अपनी, कहने का ढंग अपना और नाम भगवान् महावीर का ! उसकी इस कृति में साफतौर पर भट्टारकानुगामियों की तेरहपंथियों के साथ युद्ध की वही मनोवृत्ति काम करती हुई दिखलाई दे रही है, जैसा पहले लेख में उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय इस सारे वर्णन में और कुछ भी सार नहीं है । भगवान् महावीर जैसे परम विवेकी और परमसंयमी आप्तपुरुषों का ऐसा असम्बद्ध, सदोष और कषायपरिपूर्ण वचनव्यवहार नहीं हो सकता। ऐसे वचनों अथवा ग्रन्थों को जिनवाणी कहना, जिनमुखोत्पन्न बतलाना, जिनवाणी का उपहास करना है। यदि सचमुच जिनवाणी का ऐसा ही रूप हो, तो उसे कोई भी सुशिक्षित और सहृदय मानव अपनाने के लिये तैयार नहीं होगा । "इसके सिवाय, किसी भी सभ्य मनुष्य को यह बात पसंद नहीं आती कि वह अपनी पूजा - प्रशंसा के लिये दूसरों को साक्षात् प्रेरणा करे, फिर मोहरहित वीतरागी आप्तपुरुषों की तो बात ही निराली है। उन्हें वीतराग होने के कारण पूजा - प्रशंसा से कोई प्रयोजन ही नहीं होता, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के 'न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे' जैसे वाक्य से प्रकट है। उनके द्वारा इस तरह विस्तारपूर्वक और लड़-झगड़कर अपनी पूजा-अर्चा का विधान नहीं बन सकता। स्वामी पात्रकेसरी ने तो अपने स्तोत्र में 'त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिताः किन्तु तास्त्वयि प्रसृतभक्तिभिः स्वयमनुष्ठिताः श्रावकैः ' जैसे वाक्य द्वारा स्पष्ट बतला दिया है कि केवलज्ञानी भगवान् ने इन पूजनादि क्रियाओं का उपदेश नहीं दिया, किन्तु भक्त श्रावकों ने स्वयं ही ( अपनी भक्ति आदि के वश होकर) उनका अनुष्ठान किया है, उन्हें अपने व्यवहार के लिये कल्पित किया है। और यह बहुत कुछ स्वाभाविक है । १३३ ऐसी हालत में भगवान् महावीर के मुख से जो कुछ यद्वा तद्वा अपनी इच्छानुकूल कहलाया गया है और उसमें तेरहपन्थियों आदि के प्रति जो अपशब्दों का व्यवहार किया गया है, उससे भगवान् महावीर का कोई सम्बन्ध नहीं है, उनका जरा भी उसमें हाथ नहीं है, वह सब वास्तव में ग्रन्थकार १३३. “ इस विषय के विशेष विवेचनादि के लिये लेखक की उस लेखमाला को देखना चाहिये, जो कुछ वर्ष पहले 'उपासना-विषयक समाधान' नाम से 'जैनजगत्' में प्रकट हुई थी।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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