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________________ अ०८/प्र० ७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १४३ की श्रद्धा है तो प्रतिदिन छह क्रियाओं को करो। मूढो! हृदयोक्ति को छोड़ो और वसु राजा की तरह ग्रन्थों का लोप मत करो। अहो मूर्यो! मतिश्रुतावधिनेत्रधारक योगियों ने तो इन अभिषेकादि संपूर्ण क्रियाओं में कोई दोष देखा नहीं, तुम्हारे तो मूढो! मतिज्ञानादि सद्गुण अल्प मात्रा में भी दिखाई नहीं देते, फिर बतलाओ तुम बुद्धिविहीनों ने किस ज्ञान से अभिषेकादि क्रियाओं में प्रदोष देखा है? प्रभु के चरणों पर चन्दनादि से लेप करने में क्या दोष है? दीपक का उद्योत करने में, जिनांकस्थित यक्षों का पूजन करने में, धूप जलाने में, रात्रि को पूजन करने में, जिनात्तपुरुषों (भट्टारकों) के मार्गवर्धक वात्सल्य में, पुष्पसमूह से जिनचरण की पूजा करने में, और केला, आम तथा अंगूरादि फलों से पूजा करने में क्या दोष है? इत्यादि संपूर्ण क्रियाएँ जिननाथ ने आगम में कही हैं, तुमने अपनी मूढ़बुद्धि से उन्हें छोड़ दिया है। अतः तुम जिनेन्द्र की आज्ञा भङ्ग करने वाले और कुमार्गगामी हो, श्राद्ध (श्रद्धावान् श्रावक) नहीं हो, जिनाज्ञा के लोप से निष्फल हो गये हो। जहाँ आज्ञा (आज्ञापालन) नहीं, वहाँ धर्म का लेश भी नहीं, अतः तुम निःसन्देह कुश्रद्धा के पालक हो। अरे! जिनवचन में यदि तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा हो, तो अभिषेकादि सत्क्रियाओं को अङ्गीकार करो। मूढो! बतलाओ तो सही, किसकी आज्ञा से तुमने अभिषेकादि मुख्य क्रियाएँ छोड़ी हैं? ग्रन्थ खोलकर दिखलाओ। दुष्टो! बोलो, ग्रन्थों के अनुसार तुमने ये क्रियाएँ छोड़ी हैं या अपनी मति के अनुसार? जिनमुखोत्पन्न ग्रन्थों की आज्ञा तो तीनों लोक में सभी देवेन्द्र, नरेन्द्र, नागेन्द्र और खचरेन्द्र मानते हैं, जिनेन्द्र की आज्ञा के बिना सुरेन्द्र कहीं भी कोई काम नहीं करते, फिर बतलाओ, अरे मर्यो! तुमने परम्परा से चली आई इन अभिषेकादि क्रियाओं को कैसे उत्थापित किया है? जिनाज्ञा लोपने की सामर्थ्य तो देवेन्द्रों की भी नहीं होती, मूढ़ो! तुमने कैसे उसका लोप कर दिया? क्या तुम उनसे भी बड़े हो और इसलिये तुमने सर्वेन्द्र-पूज्य प्रभु के वाक्य का उत्थापन कर दिया है? अरे मूर्यो! बोलो, क्या ये सब क्रियाएँ असत्य हैं? यदि असत्य हैं तो फिर सारे ग्रन्थ झूठे ठहरेंगे। तुम्हारे यदि जिनागम की श्रद्धा है, तो फिर आगम वाक्य के अनुसार क्यों नहीं चलते? पक्षपात को छोड़ो और ग्रन्थपक्ष के अनुसार चलो। "जिन वाक्यों का सार दिया गया है, वे क्रमशः इस प्रकार हैं भवद्भिः केन ग्रन्थेन वक्तव्यं खलु लोपिताः । षट् क्रियाः जिननाथेन इमाः प्रोक्ताश्च गेहिनाम्॥ ६०॥ स्यात् यदि दृढश्रद्धा वै भवतामागमस्य च। कुरुध्वं जिननाथस्य षट् क्रियां वासरं प्रति॥ ६१॥ त्यजध्वं हृदयोक्तिं च वसुभूपालवत् खलु। ग्रन्थानां लोपनं मूढा मा कुरुध्वं मतापहम्॥ ६२ ॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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