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________________ १४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/ प्र०७ की तरह (शीघ्र) मर जाते हैं, ८वें, १२वें, १६वें वर्ष तथा जवानी में ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं और इस लोक तथा परलोक में धूर्त१२८ बन जाते हैं। साथ ही यह भी कहा गया है कि प्राणियों के शरीर में जो भी कष्टदायक दुःख होते हैं वे सब परनिन्दा के फल हैं।१२९ और जो लोग प्रत्यक्ष में (सामने ही) निन्दा करते हैं उन्हें चाण्डाल के समान समझना चाहिये।१३० "इसके बाद यह दुहाई देते हुए कि ग्रंथों में भद्रबाहु, माघनन्दी, जिनसेन, गुणभद्र, कुन्दकुन्द, वसुनन्दी और सकलकीर्ति आदि योगीन्द्रों के द्वारा पूजा-स्नानादि की वे ही सब क्रियाएँ रक्खी गई हैं, जो वीतराग भगवान् तथा गणधरादिक ने कहीं हैं, यहाँ तक कह डाला है कि उन क्रियाओं का उत्थापन करनेवाले कपटी मनुष्य दुःखों से भरे हुए सातों नरकों में क्यों नहीं जायेंगे? भगवान् के वचन को लोपने से मूढ़, मानी पुरुष निश्चय ही नाना दुःखों की खान निगोदों में पड़ेगे।१३१ "अन्त में बहुत कुछ संतप्त होकर भगवान् उन तेरहपन्थियों आदि को सम्बोधित करते हुए उनसे इस प्रकार पूछने और कहने लगे हैं "बतलाओ तो सही, किस ग्रन्थ के आधार पर तुमने गृहस्थों की इन छह क्रियाओं (पंचामृत अभिषेक, भगवत् चरणों पर गंधलेपन को लिये हुए सचित्तादि द्रव्यों से पूजा, स्तुति, जप, ध्यान, गुरुमुख से शास्त्रश्रवण) का लोप किया है? यदि तुम्हारे जिनागम १२८. मूल में 'धवाः' पद है और वह यहाँ धूर्तों का वाचक है। हेमचन्द्रादि के कोशों में भी 'धवः धूर्ते नरे पत्यौ' आदि वाक्यों के द्वारा 'धव' शब्द को धूर्तवाचक बतलाया है। परन्तु अनुवादक-संपादक ब्र० ज्ञानचन्द्र जी महाराज ने अपनी नूतनाविष्कारिणी शक्ति के द्वारा बड़ी निरंकुशता के साथ उसका अर्थ विधुर तथा विधवा कर दिया है और लिख दिया है कि "इस लोक तथा परलोक में विधुर अथवा विधवा हो जाते हैं।" (लेखक)। १२९. "फलादेश की इस फ़िलासॉफ़ी ने जैनधर्म की सारी कर्म-फ़िलासॉफ़ी को लपेट कर बालाए ताक रख दिया है।" (लेखक)। १३०. पिछले दोनों वाक्यों के सूचक श्लोक इस प्रकार हैं ये ये दुःखाश्च जायन्ते प्राणिनां दु:खदायकाः। ते ते ज्ञेयाः शरीरेषु परनिन्दाया भो फलम् ॥ ६७९॥ प्रत्यक्षं येऽत्र मूढा वै निन्दां कुर्वन्ति सर्वदा। ज्ञेयाः श्वपचसा तुल्याः स्वमतस्य क्षयंकराः॥ ६८१॥ १३१. तक्रियोत्थापकाः किन्न यास्यन्ति ये च सप्तसु। श्वभ्रेषु दुःखपूर्णेषु नराः कापट्यपूरिताः॥ ६९४ ॥ प्रभोर्वाक्यप्रलोपेन ते मूढा मानसंयुताः। यास्यन्ति वै निकोतेषु नानादु:खकरेषु च॥ ६९८ ॥ Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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