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________________ अ०८ / प्र० ७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १४१ करेंगे, नया-नया मार्ग चलाएँगे, शास्त्रों के वचन का लोप करेंगे, ग्रन्थों को दोष लगाएँगे, संस्कृत - प्राकृत के ग्रन्थ नहीं बाँचेंगे, अपनी ही बुद्धि से कल्पित किये ( भाषा) ग्रंथों को स्वाध्याय तथा पूजनादि के कार्यों में बर्तेंगे, ग्रंथों के पूजक तथा जिनबिम्बों के निन्दक भी होंगे और जिनात्त-पुरुषों ( भट्टारक गुरुओं) तथा साधर्मिपुरुषों की निन्दा करेंगे, इत्यादि कह कर और निन्दा के फलवर्णन की अप्रासंगिक बात उठाकर उसके बहाने उन्हें फिर प्रकारान्तर से खूब कोसा गया है। कहा गया है कि ऐसे निन्दक लोग अगले जन्म में अन्धे, बहरे, गूँगे, कुबड़े, सदा रोगी, विकलांगी, दारिद्री, नपुंसक, कुरूपी, असुरीले, दुःखभोगी, पुत्रपौत्रादि-रहित, सदा शोकी, भाग्यहीन, दुर्बुद्धि, क्रूर, दुष्ट, खल, ज्ञानशून्य - मुन्यादि - वर्जित ( साधु आदि के सत्संग-रहित अथवा निगुरे ), धर्ममार्गपराङ्मुख, गुणमानविहीन और दूसरों के घर पर नौकर होते हैं ( होंगे), प्रतिपच्चन्द्रमा ४. मतस्य ते नराः खलाः । सप्तधावनि दुःखदम् ॥ ६४५ ॥ केचिच्छ्रद्धानिका नराः । जिनागम - प्रघातकाः ॥ ६४६ ॥ सर्वामभिषेकादिकां क्रियाम् । वसुभूपालवत्स्वस्य दृढं पक्षं करिष्यन्ति जिनात्तपुरुषाणां च खला निन्दां करिष्यन्ति पूर्वाचार्यकृ तस्मिन्नुत्थापयिष्यन्ति ते . नूतनां नूतनां सर्वां ते नराश्च क्रियां भूप वयं श्रद्धानिका यूयं मानयिष्यन्ति ते चित्ते स्वधीकल्पितग्रंथान् वै कार्ये प्रवर्तयिष्यन्ति नो इत्थं जैनेन्द्रधर्मस्य मध्ये तस्मिन्नेव भविष्यन्ति Jain Education International मूढाः पञ्चमोद्भवाः॥ ६४७॥ करिष्यन्ति जडाशयाः । (इनके पश्चात् हुंडावसर्पिणी काल की है ।) स्वस्वमतिविकल्पतः॥ ६४८ ॥ मिथ्यात्वपथसेवकाः । क्रियालेशोज्झिताः खलु ॥ ६४९ ॥ स्वाध्याये पूजनादिके। तद्धिते खलाशयाः ॥ ६५० ॥ भेदोत्कराः खलु। स्वस्वमतविनाशकाः ॥ ६५१ ॥ कुछ घटनाओं का उल्लेख ६६० नम्बर तक श्रावकाः खलाः । साधर्मिपुरुषाणां च निन्दां ते करिष्यन्ति कलौ भूप निन्दायाः किं फलं भवेत् ॥ ६६१ ॥ ( आगे नम्बर ६८१ तक निन्दा का फल दिया है ।) ५. ह्येवं सर्वं भविष्यन्ति कलौ भूप न संशयः । श्रद्धानिकाः खलु ॥ ६८२ ॥ श्रद्धानिकाः खलु । स्वचित्ते मानयिष्यन्ति वयं ग्रन्थलोपजपापेन ते च नरकावनौ च यास्यन्ति सर्वे हि मगधेश्वर ॥ ६८३ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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