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________________ अ०८ / प्र० ७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १३९ सुगंधित धूप जलाने और केला आम्रादि फलों को अर्पण करने रूप अष्टद्रव्य से पूजन का विधान ही नहीं किया किन्तु "एवं बुधोत्तमा जिनपतेः इज्यां कुरुध्वं च भो" (६२२) जैसे वाक्यों द्वारा उस प्रकार से पूजन की साक्षात् प्रेरणा भी की अथवा आज्ञा तक दी है। साथ ही ऐसे प्रत्येक द्रव्य से पूजन का फल ही नहीं बतलाया, बल्कि इन द्रव्यों से पूजन करके फल प्राप्त करनेवालों की आठ कथाएँ भी दे डाली हैं,१२४ जिससे इस प्रकार के पूजन की पुष्टि में कोई कोर-कसर बाकी न रह जाय। शेष जप, स्तुति, ध्यान और गुरुमुख से शास्त्रश्रवण१२५ नाम की क्रियाओं का विधान भी भगवान् ने प्रेरणा तथा फलवर्णना के साथ किया है, परन्तु उनके विषय में भविष्य का कोई खास उल्लेख नहीं किया गया।१२६ इसके बाद वे फिर से पूर्णाहुति के तौर पर उक्त छहों क्रियाओं का उपदेश देने बैठ गये हैं। और इतने पर भी तृप्त न होकर थोड़ी देर बाद उन्होंने जलगंधाक्षतादि जुदे-जुदे द्रव्यों से पूजन का वही राग पुनः छेड़ दिया है। "हाँ, बीच-बीच में जब कहीं उन्हें दिगम्बर तेरहपन्थी नजर पड़ गये हैं या उनसे भी चार कदम आगे तारनपन्थी और स्थानकवासी दिखलाई दे गये हैं, तो भगवान् अपने को सभाल नहीं सके, वे आवेश में आकर एकदम उन पर टूट पड़े हैं और समवसरण में बैठे-बैठे ही भगवान् की उनके साथ अच्छी खासी झड़प हो गई है। भगवान् ने उन्हें मूर्ख, मूढ़, कृतघ्न, गुरुनिन्दक, आगमनिन्दक, जिनागमप्रघातक, जैनेन्द्रमतघातक, मदोद्धत, क्रूर, सुबोधलववर्जित, क्रियालेशोज्झित, वचनोत्थापक, मिथ्यात्वपथसेवक, मायावी, खल, खलाशय, जड़ाशय, धर्मघ्न, धर्मबाह्य, कापट्यपूरित, जिनाज्ञालोपक, कुमार्गगामी और अधम आदि कहकर अथवा इस प्रकार की गालियाँ देकर ही सन्तोष धारण नहीं किया, बल्कि उन्हें श्वपचतुल्य (चाण्डालों के समान) १२४. "ये कथाएँ पंचमकाल के भाविक वृत्तान्त के वर्णन में बहुत कुछ असम्बद्ध जान पड़ती हैं, और इनसे यह कथन अगले भविष्यकथन की प्रस्तावना या उत्थानिका की कोटि से और भी ज्यादा निकल जाता है तथा एक प्रलाप के रूप में ही रह जाता है।" (लेखक)। १२५. "ग्रन्थों का स्वतः स्वाध्याय कर भक्त लोग कहीं भट्टारकों के शासन से निकल न जायँ, उन पर नुक्ताचीनी करनेवाले तेरहपंथी न बन जायँ, इसी से शायद गुरुमुख से शास्त्रश्रवण की यह बात रक्खी गई जान पड़ती है। अनुवादक जी ने 'ग्रन्थान् भव्याः गुरोरास्यात् शृणुध्वम्' का अर्थ "ग्रन्थों का स्वाध्याय गुरुमुख से ही श्रवण करना चाहिये" देकर इसकी मर्यादा को और भी बढ़ा दिया है, परन्तु खेद है कि वे अपने इस वाक्य में प्रयुक्त हुए 'ही' शब्द पर खुद अमल करते हुए नज़र नहीं आते।" (लेखक)। १२६. "इन क्रियाओं के साथ में भविष्य का कोई वर्णन न रहने से इनका कथन प्रतिज्ञात भाविक वृत्तान्त के साथ और भी असंगत हो जाता है और बिलकुल ही निरर्थक ठहरता है।" (लेखक)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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