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________________ १३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ७ " ग्रन्थ में भगवान् महावीर के मुख से भविष्य कथन के रूप में जो असम्बद्ध प्रलाप कराया गया है वह नं० ३ (शीर्षक) में दिये हुए कुन्दकुन्द के प्रकरण के साथ ही समाप्त नहीं होता, बल्कि दूर तक चला गया है। अगले प्रकरणों को पढ़ते हुए भी ऐसा मालूम होता है मानो भगवान् कहीं-कहीं तो ठीक भविष्य का वर्णन कर रहे हैं और कहीं एकदम विचलित हो उठे हैं और उनके मुख से कुछ का कुछ निकल गया है, कथन का कोई भी एक सिलसिला और सम्बन्ध ठीक नहीं पाया जाता। कुन्दकुन्द- प्रकरण के अनन्तर अगले कथन का जो प्रतिज्ञावाक्य दिया है वह इस प्रकार है अथापरं शृणु भूप वृत्तान्तं भाविकं वक्ष्ये Jain Education International पञ्चमसमयस्य वै । सर्वचिन्तासमाधिना ॥ ४९९॥ " इसमें साफतौर पर पंचमकाल के दूसरे भावी वृत्तान्त के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए राजा श्रेणिक से उस वृत्तान्त को सुनने की प्रेरणा की गई है । परन्तु इसके अनन्तर ही, भावी वृत्तान्त की बात को भुलाकर, भगवान् ने अभिषेकादि छह क्रियाओं का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया है। और उसके द्वारा वे खुद ही अपनी पूजाअर्चा का विधान करने बैठ गये हैं । यहाँ तक कि जपक्रिया के मंत्रों में उन्होंने अपना नाम भी 'सर्वकर्मरहिताय श्रीमहावीरजिनेश्वराय सदा नमः' इत्यादि रूप से जपने के लिये बतला दिया है। साथ ही अपने परम आराध्य कुन्दकुन्द के नाम का मंत्र देना भी वे नहीं भूले हैं और उन्होंने कुन्दकुन्द के नामवाले मंत्र को तीन बार 'नमोऽस्तु' के साथ जपने की व्यवस्था करके उनके प्रति अपनी गाढ़ श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया है। अभिषेक क्रिया के वर्णन में उन्होंने जल, इक्षुरस, घृत, दुग्ध और दधिरूप पंचामृत से जिनेन्द्र के और इसलिये अपने भी स्नान का विधान ही नहीं किया, बल्कि " स्नानं कुरुध्वं बुधाः " (५०८) जैसे वाक्यों द्वारा उसकी साक्षात् प्रेरणा तक की है। साथ ही, उसकी दृढ़ता के लिये ऐसे अभिषेक का फल भी मेरुपर्वत पर देवताओं द्वारा अभिषेक किया जाना आदि बतला दिया है और एक नजीर भी प्रोत्साहनार्थ तथा इस क्रिया को मुख्यता प्रदान करने के लिये दे डाली है, और वह यह कि देवता लोग भी पहले भगवान् का अभिषेक करके पीछे सम्पत्ति को अंगीकार करते हैं, दूसरे कामों में लगते हैं । १२३ इसी तरह पूजन क्रिया के वर्णन में उन्होंने भगवच्चरणों के आगे जल की तीन धाराएँ छोड़ने, केसर, अगर- कपूर को घिसकर जिन चरणों पर लेप करने और जिन चरणों के आगे सुन्दर अक्षतों, कुन्द - कमलादि के पुष्पों तथा सर्व प्रकार के पक्वान्न व्यंजनों को चढ़ाने, हजारों घृतपूरित दीपकों का उद्योत करने, १२३. "इससे यह कथन अगले भविष्यकथन की प्रस्तावना या उत्थानिका की कोटि से निकल जाता है और एक असम्बद्ध प्रलाप के रूप में ही रह जाता है। " (लेखक) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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