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अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १३७
"सं० १८३९ श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये भट्टारक श्री जनेन्द्रभूषणोपदेशात् परवारवंशोद्भव श्री भारमूर भारिल्ल गोत्रे मंजुदास तद्भार्या खरगो तस्यात्मज सिंघई वच्छरमन तस्य पत्नी श्री रामकुंवर तस्य आत्मज सन्तोष-राय द्वितीय लल्लू तृतीय पूरनमल पौत्र मनराखन नित्यं प्रणमेत छत्रपुरमध्ये वैशाखसुदी १३ गुरौ।" (कमलकुमार जैन : 'जिनमूर्ति-प्रशस्ति-लेख'। श्री दिगम्बरजैन बड़ामंदिर छतरपुर / क्र.१०२ / पृ. ३८)।
अनुवाद-"संवत् १८३९ (ई० सन् १७८२) में श्री मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, कुन्दकुन्दाचार्य-आम्नाय में भट्टारक श्री जिनेन्द्रभूषण के उपदेश से परवारवंशोद्भव श्री भारमूर भारिल्लगोत्र के मंजुदास, उनकी पत्नी खरगो, उनके पुत्र सिंघई वच्छरमन, उनकी पत्नी श्री रामकुँवर, उनके आत्मज सन्तोषराय, द्वितीय आत्मज लल्लू , तृतीय आत्मज पूरनमल्ल और पौत्र मनराखन छतरपुर में, वैशाख सुदी १३, गुरुवार के दिन (प्रतिमा को प्रतिष्ठापित कर) नित्य प्रणाम करते हैं।"
तेरापन्थ के उदय की प्रतिक्रिया उत्तरभारत से भट्टारकपीठों का उन्मूलन करनेवाले तेरापन्थ के उदय से, बचे हुए भट्टारकों तथा उनके उपासकों में विरोध की तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने भगवान् महावीर के उपदेश के नाम पर सूर्यप्रकाश, चर्चासागर, त्रिवर्णाचार, भद्रबाहुसंहिता आदि तथा आचार्य कुन्दकुन्द एवं उमास्वामी जैसे प्राचीन मूलसंघीय आचार्यों के नाम से कुन्दकुन्दश्रावकाचार, उमास्वामिश्रावकाचार आदि कूट (जाली) ग्रन्थ रचकर तेरापन्थानुगामियों की अपशब्दव्यवहार-पूर्वक घोर निन्दा की और अपने द्वारा चलाये मिथ्याधर्म को भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट वास्तविक धर्म बतलाया। माननीय पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भट्टारकों तथा उनके भक्त पण्डितों द्वारा रचित ऐसे अनेक कूटग्रन्थों की परीक्षा कर उन्हें जाली सिद्ध किया है और ग्रन्थपरीक्षा नामक ग्रन्थ के चार भागों में उनकी परीक्षा प्रकाशित की है, जो प्रत्येक जागरूक जैन के लिए पठनीय है। भट्टारकभक्त पं० नेमिचन्द्रकृत सूर्यप्रकाश ग्रन्थ में भगवान् महावीर के मुख से भावी मनुष्यों के आचार-विचार, उनकी प्रवृत्तियों, कतिपय धर्मों के प्रादुर्भाव
और कुछ घटनाओं आदि का वर्णन यद्वा-तद्वा भविष्य-कथन के रूप में कराया गया है। (सूर्यप्रकाश-परीक्षा / पृ. १९)। इसी प्रसंग में भगवान् के मुख से तेरहपन्थियों को कटु गालियाँ दिलायी गयी हैं। इसकी जानकारी के लिए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार के सूर्यप्रकाश-परीक्षा ग्रन्थ (पृ.४६-६०) से निम्नलिखित अंश उद्धृत किया जा रहा है
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