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१३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०७ अशान्ति से सब ओर अज्ञान अंधकार छा रहा था, दूसरे भट्टारक लोग अपने दोषों पर कोई अंगुलिनिर्देश नहीं कर सके और हमारी सेवापूजा में कुछ न्यूनता नहीं होने पावे, इस स्वार्थ-विचार से श्रावकसमूह में धार्मिक ज्ञान की वृद्धि की कुछ चेष्टा नहीं करते थे, बल्कि धार्मिक ज्ञान के 'शोलएजेंट' बनकर वे श्रावकों को मनमाने भाव से धर्म का विक्रय करने लगे थे और उन्हें तार के इशारों से नाचने वाली कठपुतलियों के समान सर्वथा जड़ बना के निश्चिन्त हो गये थे। तेरहपंथ का सबसे बड़ा उद्योग भट्टारकों की इसी संकीर्णता के विरुद्ध में हुआ। उसने श्रावकों को उनका भूला हुआ निजत्व स्मरण कराया और सिखलाया कि ऐसे गुरुओं की अपेक्षा न करके अब तुम
अपने पैरों से खड़ा होना सीखो। धार्मिक ज्ञान की प्राप्ति के लिये यदि तुम संस्कृत नहीं पढ़ सकते हो, तो मत पढ़ो, हम तुम्हें भाषा में ही जैनधर्म के सिद्धान्त जानने का मार्ग सुगम किये देते हैं। इस विषय में तेरहपंथ के अगुओं ने इतना उद्योग किया कि पिछले दो सौ-तीन सौ वर्षों में हजारों जैनग्रन्थ जयपुर, आगरा आदि की सरल भाषाओं में बन गये। और उन्हें पढ़कर जगह-जगह जैनधर्म के जाननेवाले श्रावक दिखलाई देने लगे। जगह-जगह शास्त्रसभाएँ वा स्वाध्यायसभाएँ होने लगीं। और साधारण पढ़ेलिखे भाई भी गोम्मटसार जैसे गहन ग्रन्थों की चर्चा समझने लगे। इसीलिए हम कहते हैं कि तेरहपंथ ने जैनधर्म को बचा लिया।
"जिन प्रान्तों में भट्टारकों की सत्ता अभी तक बनी हुई है, उनसे यदि आप उन प्रान्तों का मिलान करेंगे, जहाँ कि भट्टारकों की पूछ नहीं है और तेरहपंथ का जोर है, तो जमीन-आसमान का फर्क नजर आयगा। भट्टारकों के प्रान्त धार्मिक ज्ञान से प्रायः कोरे मिलेंगे और तेरहपंथ के प्रान्त धर्मचर्चा से सिंचित दिखलाई देंगे। इससे आप अनुमान कर सकते हैं कि तेरहपंथ ने क्या किया है।" (जैनहितैषी / भाग ७/ अंक १०-११ / वीर नि० सं० २४२७ / १९१० ई०)।
बुन्देलखण्ड में भट्टारकशासन की अन्तिम सदी १८वीं ई०
यद्यपि ईसा की १७वीं सदी में उत्तरभारत में भट्टारकपन्थ के प्रति विद्रोह की आग भड़की और उत्तरभारत से उसे उखाड़ फेंक दिया गया, तथापि इस कार्य में लगभग सौ वर्ष लग गये। इसका प्रमाण यह है कि बुन्देलखण्ड में ईसा की १८वीं शताब्दी तक भट्टारकों के ही उपदेश से उनके ही प्रतिष्ठाचार्यत्व में मूर्तिप्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न होते रहे। यह छतरपुर (म.प्र.) के श्री दिगम्बरजैन बड़ा मंदिर में विराजमान भगवान् अजितनाथ की प्रतिमा के पादपीठ पर उत्कीर्ण निम्नलिखित लेख से ज्ञात होता है
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