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अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१३५
"जो लोग प्राचीनता को ही समीचीनता की जड़ समझते हैं, अपने पंथ या धर्म को प्राचीन सिद्ध करने में ही अपना गौरव समझते हैं, वे शायद तेरहपंथ को आधुनिक बतलाने के कारण हम पर नाराज होंगे। परन्तु हमारी समझ में गंदे प्राचीन बनने की अपेक्षा पवित्र अर्वाचीन बनना अच्छा है। और यह भी तो सोचना चाहिये कि तेरहपंथ का उदय संवत् १६८३ के लगभग हुआ, सो क्या उसका उदय करनेवालों ने उस समय अपना कोई नवीन सिद्धान्त स्थापित किया था? नहीं, भट्टारकों के द्वारा वीतरागमार्ग में जो बुराइयाँ पैदा हो गई थीं, उनको उन्होंने दूर करने का और यथार्थमार्ग की प्रवृत्ति करने का निश्चय किया था। फिर तेरहपंथ को अर्वाचीन पद मिलने से खेद करने की क्या आवश्यकता है?
"पंचामृत-अभिषेक करना, प्रतिमा के चरणों में केशर लगाना, सचित्त फलफूल चढ़ाना, क्षेत्रपालादि की पूजा करना आदि क्रियाकाण्ड-सम्बन्धी कई बातों में तेरहपंथ और बीसपंथ में मतभेद है। बीसपंथी इन कार्यों का करना आवश्यक समझते हैं, और तेरहपंथी इनका निषेध करते हैं। परन्तु तेरहपंथ और बीसपंथ का प्रधान मतभेद भट्टारकों की उपासना के कारण हुआ है। और भट्टारकों की उपासना नहीं करना, यह पक्ष जो तेरहपंथियों ने लिया था, उसका कारण केवल भट्टारकों का शिथिलाचार है। बल्कि इस शिथिलाचार की शंका ही से तेरहपंथियों ने बीसपंथ में अयलाचारपूर्वक प्रचुरता से प्रचलित पंचामृताभिषेकादि क्रियाओं का निषेध कर दिया है। इस लेख में हम यह चर्चा नहीं करना चाहते हैं कि इन बीसपंथियों में मान्य और तेरहपंथियों में निषिद्ध क्रियाओं के विषय में शास्त्रों की क्या राय है, परन्तु यह कहने में हमें कुछ अत्युक्ति नहीं जान पड़ती है कि तेरहपंथियों ने जिस तरह बहुत सी अनुचित बातों का निषेध करके शुद्धाम्नाय की प्रवृत्ति की है, उसी तरह से बहुत सी उचित बातों का भी त्याग कर दिया है और इसका कारण भट्टारकों के शिथिलाचार की शंका तथा अपने पक्ष का सीमा से अधिक खिंचाव है।
"तात्पर्य यह है कि तेरहपंथ के उत्पन्न होने का मुख्य कारण भट्टारकों का अध:पतन तथा शिथिलाचार है।
"तेरहपंथ ने क्या किया? यदि कोई हम से उक्त प्रश्न करे, तो हम उसको स्पष्ट शब्दों में उत्तर देंगे कि तेरहपंथ ने जैनधर्म को बचा लिया! जिस प्रकार भट्टारकों ने प्रारंभ में जैनधर्म की बड़ी भारी प्रभावना की थी, उसको अनेक संकटों से बचाया था, उसी प्रकार से तेरहपंथ ने भट्टारकों के एकाधिपत्य से नष्ट होते हुए जैनधर्म को सहारा देकर खड़ा कर दिया। जिस समय भट्टारकों पर प्रवृत्ति ने अपना मोहिनीमंत्र फूंका था, और उससे मुग्ध होकर वे स्वर्गीय निवृत्तिमार्ग से पतित होकर वासनाओं की पंकिल भूमि में आ पड़े थे, उस समय एक तो यों ही कई शताब्दियों की राजकीय
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