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१३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ७ भी निषेध करता है, तथा भगवान् की पूजनसामग्री में हरे पुष्प और फल नहीं चढ़ाता । उत्तर भारत में इस पन्थ का उदय हुआ और धीरे-धीरे यह समस्त देशव्यापी हो गया। इसके प्रभाव से भट्टारकी युग का एक तरह से लोप ही हो गया ।" ( जैनधर्म / पृ. ३०४-३०५) ।
२.२. पं० नाथूराम जी प्रेमी
का मत
तेरहपन्थ की उत्पत्ति के कारण की मीमांसा पं० नाथूराम जी प्रेमी ने इन शब्दों में की है - " जब भट्टारकों ने अपने शिथिलाचार से, क्रियाकाण्ड की अयत्नाचाररूप प्रवृत्ति से, अपरिमित अधिकारों के दुरुपयोग से और मुनिवेष के सर्वथा परित्याग से वीतराग भगवान् के मार्ग को गंदा करना शुरू किया और जब वह मनस्वी विद्वानों को सहन नहीं हुआ, तब उन्होंने तेरहपंथ की नीव डाली। इस तरह अन्य धर्मों और पंथों के समान तेरहपंथ की भी उत्पत्ति में उस समय की परिस्थिति और आवश्यकता ही को प्रधान कारण समझना चाहिए ।
" पं० बखतरामजीकृत बुद्धिविलास ग्रन्थ में अनेक गच्छों का वर्णन करते हुए कहा है कि
इनही गछमैं नीकस्यौ, नूतन तेरहपंथ ।
सोलह सै तेरासिए, सो सब जग जानंत॥ ६३१ ॥
" इससे मालूम होता है कि वि० संवत् १६८३ में तेरहपंथ की उत्पत्ति हुई । तेरहपंथ कोई ऐसा जुदा पंथ नहीं है, जिसने अपने कोई खास सिद्धान्त और नियमादि के ग्रन्थ बनाये हों, इसलिये उसकी उत्पत्ति की कोई खास तिथि या मिती नहीं हो सकती है, तो भी उक्त दोहे से यह मान लिया जा सकता है कि संवत् १६८३ के लगभग इस पंथ के अनुयायी दो सौ चार सौ श्रावक अवश्य हो गये होंगे। यद्यपि तेरहपंथ के जो विचार हैं, वे विद्वानों के जी में उसी समय कुछ अव्यक्त रूप से स्थिर हो गये होंगे, जब कि भट्टारकों में थोड़ा-थोड़ा शिथिलाचार घुसा था, परन्तु वे विचार प्रगट होकर किसी पुरुषार्थवान् विद्वान् के द्वारा १६८३ के लगभग ही कार्य में परिणत हुए होंगे। और उस समय भट्टारकों का शिथिलाचार तथा अत्याचार असह्य हो गया होगा। आगे ज्यों-ज्यों शिथिलाचार बढ़ता गया, त्यों-त्यों तेरहपंथ पुष्ट होता गया और उसका प्रतिपक्षी भट्टारकपंथ वा बीसपंथ कमजोर होता गया । इन दोनों का बढ़ाव-घटाव पिछली तीन शताब्दियों में इतना हुआ कि अब इस समय दिगम्बर जैनियों का लगभग दो तिहाई समाज तेरहपंथ का अनुयायी है और बीसपंथियों में भी जितना शिक्षित समाज है, यदि वह तेरहपंथी नहीं है, तो भट्टारकपंथ का भी अनुयायी नहीं है।
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