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अ०८/प्र० ७
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १३३
विद्रोह एवं तेरापन्थ का उदय भट्टारकों के इस राजसी ठाठबाटमय, श्रावकशोषक, निरंकुश रूप से जैन गृहस्थों का मन उनके प्रति घोर घृणा और आक्रोश से भर गया और ईसा की १७वीं शताब्दी में आगरावासी कविवर पं० बनारसीदास जी जैसे धर्मज्ञ पण्डितों के नेतृत्व में उन्होंने भट्टारकपरम्परा के प्रति विद्रोह कर दिया, जिसके फलस्वरूप उत्तरभारत से भट्टारकपरम्परा का लोप हो गया और तेरापन्थ की स्थापना हो गयी। केवल दक्षिणभारत, महाराष्ट्र और गुजरात में इने-गिने भट्टारकपीठ अवशिष्ट रह गये। उत्तरभारत से भट्टारकपरम्परा का यह उन्मूलन इस बात का दो टूक प्रमाण है कि उसने जैनधर्म के स्वरूप को कितना विकृत कर दिया था! और उस विकृति का दुष्परिणाम आज जैन समाज तेरापन्थ
और बीसपन्थ नाम के दो टुकड़ों में विभक्त होकर दूसरे रूप में भोग रहा है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भट्टारकसम्प्रदाय ने तीर्थों, मन्दिर-मूर्तियों और शास्त्रों की रक्षा कर जिनशासन का जितना हित किया है, उससे कई गुना अहित किया है। २.१. पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री का मत
तेरहपन्थ के उदय के कारण पर प्रकाश डालते हुए पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"भट्टारकी युग के शिथिलाचार के विरुद्ध दिगम्बर-सम्प्रदाय में एक पन्थ का उदय हुआ, जो तेरहपन्थ कहलाया। कहा जाता है कि इस पन्थ का उदय विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं० बनारसीदास जी के द्वारा आगरे में हुआ था। --- श्वेताम्बराचार्य मेघविजय ने वि० सं० १७५७ के लगभग आगरे में युक्तिप्रबोध नाम का एक ग्रन्थ रचा है। यह ग्रन्थ पं० बनारसीदास जी के मत का खण्डन करने के लिए रचा गया है। इसमें वाणारसीमत का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
तम्हा दिगंबराणं एए भटारगा वि णो पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जेसिं परिग्गहो णेव ते गुरुणो॥ १६॥ जिणपडिमाणं भूसणमल्लारुहणाइ अंगपरियरणं।
वाणारसिओ वारइ दिगंबरस्सागमाणाए॥ १७॥ "अर्थात् दिगम्बरों के भट्टारक भी पूज्य नहीं हैं। जिनके तिलतुषमात्र भी परिग्रह है, वे गुरु नहीं हैं। वाणारसीमतवाले जिनप्रतिमाओं को भूषणमाला पहनाने का तथा अंगरचना करने का भी निषेध दिगम्बर-आगमों की आज्ञा से करते हैं।
"आजकल जो तेरहपन्थ प्रचलित है, वह भट्टारकों या परिग्रहधारी मुनियों को अपना गुरु नहीं मानता और प्रतिमाओं को पुष्पमालाएँ चढ़ाने और केसर लगाने का
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