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१३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०७ का भेद भी कैसे बन सकता है? अतः यह सब भट्टारकीय मायाजाल और उनकी लीला का दुष्परिणाम है। और उसी ने ऐसे बहुत से झूठे तथा जाली ग्रन्थों को जन्म दिया है, जिनमें अनेक त्रिवर्णाचार, श्रावकाचार, संहिताशास्त्र और चर्चासागर जैसे ग्रन्थ भी शामिल हैं, और जिनमें से कितनों ही की परीक्षा होकर उनका स्पष्ट झूठ तथा जालीपन पब्लिक के सामने आ चुका है।" (सूर्यप्रकाश-परीक्षा / पृ.८४-९०)।
९. भट्टारकों ने वीतरागता की प्रतीक जिनप्रतिमा की शृंगारमय पूजा प्रचलित की। चरणों में चन्दनलेप, गले में पुष्पमाला और मस्तक पर कुसुमरचित मुकुट पहनाया जाने लगा। मुकुट पहनाने का विधान मुकुटसप्तमी व्रत में किया गया है
तत्प्रश्नाच्छ्रेष्ठिपुत्रीति प्राह भद्रे! शृणु बुवे। व्रतं ते दुर्लभं येनेहामुत्र प्राप्यते सुखम्॥ शुक्लश्रवणमासस्य सप्तमे दिवसेऽर्हताम्। स्नपनं पूजनं कृत्वा भक्त्याष्टविधमूर्जितम्॥ धियतां मुकुटं मूर्ध्नि रचितं कुसुमोत्करैः।
कण्ठे श्रीवृषभेशस्य पुष्पमाला च धार्यते॥ (व्रतकथाकोश) अनुवाद-"सेठ की पुत्री के प्रश्न को सुनकर आर्यिका बोलीं-"भद्रे! सुनो, मैं तुम्हें ऐसा व्रत बतलाती हूँ, जिससे इस लोक में दुर्लभ सुख प्राप्त होता है। श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव का अभिषेक और अष्टद्रव्य से पूजन कर भगवान् ऋषभदेव के मस्तक पर कुसुमों से रचित मुकुट रखना चाहिए और कण्ठ में पुष्पमाला पहनानी चाहिए।"
१०. वीतरागता, संयम, अपरिग्रह और अहिंसाविशिष्ट जैनशासन में भट्टारकपरम्परा ने गुरु की ऐसी छवि प्रस्तुत की, जो राजसी ठाठ-बाट से रहता है, श्रावकों का शोषण करता है, उनसे तरह-तरह की लौकिक फलसाधक, अविश्वसनीय धार्मिक क्रियाएँ कराकर दक्षिणा माँगता है, उन्हें अपने पूरे परिकर के साथ भोजन कराने ओर मनमाँगी भेंट देने के लिए मजबूर करता है, भेंट देने में असमर्थ होने पर कोड़ों से पिटवाकर वसूल करता है अथवा मन्त्रतन्त्र द्वारा अनिष्ट करने की धमकी देकर आतंकित करता है।
११. भट्टारकपरम्परा ने अपने साथ कुन्दकुन्दान्वय और मूलसंघ के नाम जोड़ कर अपनी आगमविरुद्ध, मिथ्यात्वपोषक, अप्रशस्त प्रवृत्तियों को आगमसम्मत अर्थात् भगवान्-महावीरोपदिष्ट सिद्ध करने की चेष्टा की, जो केवली, श्रुत और संघ, तीनों का अवर्णवाद है।
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