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________________ अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१३१ सम्यग्दृष्टेरिदं लक्ष्म यदुक्तं ग्रन्थकारकैः। वाक्यं तदेव मान्यं स्याद् ग्रन्थवाक्यं न लङ्घयेत्॥ ६१५॥ अर्थात् ग्रन्थकारों ने (ग्रन्थों में) जो भी वाक्य कहा है, उसे ही मान्य करना और ग्रन्थों के किसी वाक्य का उल्लंघन नहीं करना, सम्यग्दर्शन का लक्षण है, जिसकी ऐसी मान्यता अथवा श्रद्धा हो, वह सम्यग्दृष्टि है।१२२ "जिन पाठकों ने जैनधर्म के प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन किया है, अथवा कम से कम तत्त्वार्थसूत्र, रत्नकरण्डश्रावकाचार और पंचाध्यायी जेसे ग्रन्थों को ही देखा है, उन्हें यह बतलाने की जरूरत नहीं कि यह लक्षण कितना विचित्र और विलक्षण है। वे सहज ही में समझ सकते हैं कि इसमें समीचीन लक्षण के अंगरूप न तो तत्त्वार्थश्रद्धान का कोई उल्लेख है, न परमार्थ आप्त-आगम-गुरु के त्रिमूढ़तादिरहित और अष्टअंगसहित श्रद्धान का ही कहीं दर्शन है, न स्वानुभूति का कुछ पता है, और न प्रशमसंवेगादि गुणों का ही कोई चिह्न दिखाई पड़ता है। सच पूछिये तो यह लक्षण बड़ा ही रहस्यमय है, जाली सिक्कों को चलाने की मनोवृत्ति ही इसकी तह में काम करती हुई नजर आती है, और इसलिए इसे भट्टारकीय शासन के प्रचार का मूल-मंत्र समझना चाहिये। इसी पर्दे की ओट में भट्टारक लोग और उनके अनुयायीजन सब कुछ करना चाहते हैं। प्राचीन ग्रन्थों में अपनी इष्टसिद्धि के लिये चाहे जो कुछ मिला दिया जाय और चाहे जिन बातों को चलाने के लिये प्राचीन ऋषियों अथवा तीर्थंकरों के नाम पर नये ग्रन्थों का निर्माण कर दिया जाय, परन्तु उसमें कोई भी 'चूँ चरा' अथवा आपत्ति न करे, बिना परीक्षा और बिना तत्त्व की जाँच किये ही सब लोग उन बातों को आगमकथित के रूप में आँख मींचकर मान लेवें, इसी मन्तव्य की रक्षा के लये बिना किसी विशेषण के सामान्यरूप से ग्रन्थकार, ग्रन्थ और वाक्य शब्दों का प्रयोग करके सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टि के लक्षण का यह विचित्र कोट तैयार किया गया है। अन्यथा इसमें कुछ भी सार नहीं है। ग्रन्थकारों में अच्छे बुरे, योग्य-अयोग्य सभी प्रकार के ग्रन्थकार होते हैं, उनमें आचार्य, भट्टारक, गृहस्थ और प्रस्तुत ग्रन्थकार तथा त्रिवर्णाचारों के कर्ताओं जैसे धूर्त भी शामिल हैं, और ग्रन्थों में भी अनेक कारणों के वश सच्ची-झूठी सभी प्रकार की बातें लिखी जा सकती हैं और लिखी गई हैं। फिर बिना परीक्षा और सत्य की जाँच किये महज ग्रन्थवाक्य होने से ही किसी बात को कैसे मान्य किया जा सकता है? यदि यों ही मान्य किया जाय, तो फिर सम्यक्मिथ्या का विवेक ही क्या रह सकता है? और बिना उसके सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि १२२. "सम्यग्दृष्टि' शब्द सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शनवान् दोनों के अर्थ में आता है। इसी से मूल में प्रयुक्त हुए इस शब्द का अर्थ यहाँ उभयरूप से किया गया है।" (लेखक)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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