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१३० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/ प्र०७ सम्यक्त्व के व्यक्त होने की योग्यता को रखने के कारण भव्य कहा जाता है। बहुत बड़े विशेषज्ञानी ही जीवों के इस भेद को पहचान सकते हैं। परन्तु पाठकों को यह जान कर बड़ा ही कौतुक होगा कि इस ग्रन्थ में उन सब जीवों को 'भव्य' बतला दिया गया है जो सम्मेदशिखर पर स्थित हों अथवा जिन्हें उसका दर्शन हो सके, चाहे वे भील-चाण्डाल-म्लेच्छादि मनुष्य, सिंहसदि पशु , कीड़े-मकोड़े आदि क्षुद्र जन्तु
और वनस्पति आदि किसी भी पर्याय में क्यों न हों, और साथ ही यह भी लिख दिया है कि वहाँ अभव्य जीवों की उत्पत्ति ही नहीं होती और न अभव्यों को उक्त गिरिराज का दर्शन ही प्राप्त होता है। यथा
यत्रत्याः सकला जीवाः सिंहसर्पादिका नराः। भव्याः स्युः इतरेषां च उत्पत्ति व तत्र वै॥ २८॥ कलौ तद्दर्शनेनैव तरिष्यन्ति घना जनाः।
भव्यराशिसमुत्पन्ना नोऽभव्याः तस्य दर्शकाः॥ ३३॥ "पाठकजन! देखा, भव्यत्व की यह कैसी अपूर्व कसौटी बतलाई गई है! बड़ेबड़े सिद्धान्तशास्त्रों का मथन करने पर भी आपको ऐसे गूढ रहस्य का पता न चला होगा। यह सब भट्टारकीय शासन की महिमा है, जिसके प्रताप से ऐसे गुप्त तत्त्व प्रकाश में आए हैं। इन यात्राओं के द्वारा भट्टारकों तथा उनके आश्रित पंडे-पुजारियों का बड़ा ही स्वार्थ सधता था। तीर्थस्थान महन्तों की गद्दियाँ बन गये थे। इसी से लोगों को यात्रा की प्रेरणा करने के लिये उन्होंने गंगा-यमुनादि हिन्दूतीर्थों के माहात्म्य की तरह कितने ही माहात्म्य बना डाले हैं। इनमें वास्तविकता बहुत कम पाई जाती है, अतिशयोक्तियाँ भरी हुई हैं। सम्मेदशिखर के माहात्म्यादि-विषय में जो कुछ विस्तार के साथ इस ग्रन्थ में कहा गया है, उसकी पूरी जाँच और आलोचना को प्रकट करने के लिए एक अच्छा खासा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। मालूम होता है, आचार्य शान्तिसागर जी का जो विशाल संघ सम्मेदशिखर की यात्रा को कुछ वर्ष पहले निकला था, वह प्रायः इस ग्रन्थ में दी हुई बड़ी यात्राविधि को सामने रखकर ही निकला था और उसके द्वारा संघपति सेठ जी को अगले ही जन्म में मुक्ति की प्राप्ति का सर्टिफिकेट मिल गया है।२१ आश्चर्य नहीं जो भावी निश्चित सिद्धों (तीर्थङ्करों) की तरह उनकी अभी से पूजा प्रारम्भ हो जाय। अब वे स्वच्छन्द हैं, चाहे जो करें।
घ-"सम्यग्दर्शन का विचित्र लक्षण-इस ग्रन्थ में, तेरहपंथियों से भगवान् की झड़प के समय, सम्यग्दर्शन अथवा सम्यग्दृष्टि का जो लक्षण दिया है वह इस प्रकार है
१२१. "इत्यादि शुभविधिना सो वन्दितः सन् द्वितीये हि भवे तं पुरुषं मोक्षसुखं दातुं क्षमः।
नात्र संशयः।" इस वाक्य के अनुसार। (लेखक)।
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