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अ०८/प्र०७
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /१२९ तथा इनके सफल अनुष्ठान का उल्लेख भी कर आया हूँ। और न यही ख्याल आया कि जिस ध्यान और तप के माहात्म्य से सम्मेदशिखर पूज्यता को प्राप्त हुआ है, उसी की मैं इस तरह अवगणना तथा निषेध कर रहा हूँ। अथवा प्रकारान्तर से मुनिधर्म को भी उठा रहा हूँ। हाँ, इस प्रकार की शिक्षा भट्टारकों के खूब अनुकूल है, उन्हें राजसी ठाठों के साथ मौजमजा उड़ाना है, ध्यानादि के विशेष चक्कर में पड़ना नहीं है।
ख-"मुक्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं-ग्रन्थ में सम्मेदशिखर के दर्शनमाहात्म्य का वर्णन करते हुए एक श्लोक निम्न प्रकर से दिया है, जिस में राजा श्रेणिक को सम्बोधन करते हुए कहा है कि इस (पाँचवें) काल में मानवों के लिये सम्मेदशिखर के (उसके दर्शन के) सिवाय शिव का (मुक्ति का) दूसरा और कोई उपाय नहीं है
अस्मिन्काले नराणां च मतो भो मगधाधिप !
श्रीमच्छिखरसम्मेदान्नान्योपायः शिवस्य वै॥ २६ ॥ "यह कथन जैनसिद्धान्तों के बिलकुल विरुद्ध है, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रादि सभी प्राचीन जैनग्रन्थों में, जो पंचमकाल के मनुष्यों के लिये ही लिखे गये है, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र को मुक्ति का उपाय (मार्ग) बतलाया है, सम्मेदशिखर की यात्रा अथवा उसके दर्शन को किसी भी सिद्धान्तग्रन्थ में मुक्ति का उपाय नहीं लिखा। दूसरे, खुद इस ग्रन्थ के भी यह विरुद्ध है, क्योंकि इसी ग्रन्थ में मुक्ति के दूसरे उपाय भी बतलाये हैं। उदाहरण के तौर पर कर्मदहन आदि व्रतों को ही लीजिये, जिन से द्वितीयादि भव में मुक्ति का प्राप्त होना लिखा है, इस यात्रा से भी द्वितीयादि भव में ही मुक्ति की प्राप्ति होना बतलाया है। फिर ग्रन्थकार का यहाँ भगवान् के मुख से यह कहलाना कि 'मुक्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं' कितनी अधिक नासमझी तथा अविवेक से सम्बन्ध रखता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यदि शिव का, मुक्ति अथवा कल्याण का, दूसरा कोई उपाय नहीं है, सम्यग्दर्शनादिक भी नहीं, तब समझ में नहीं आता कि इस ग्रन्थ के उपासक मुनिजन भी क्यों व्यर्थ के तप, जप, ध्यान, संयम और उपवासादि का कष्ट उठा रहे हैं! उन्हें तो सब कुछ छोड़-छाड़कर एक मात्र सम्मेदशिखर का दर्शन ही करते रहना चाहिये।
ग-"भव्यत्व की अपूर्व कसौटी-कोई जीव भव्य है या अभव्य, इसका पहचानना बड़ा ही मुश्किल काम है, क्योंकि कभी-कभी कोई जीव प्रकटरूप में ऊँचे दर्जे के आचार का पालन करते हुए भी अन्तरंग में सम्यक्त्व की योग्यता न रखने के कारण अभव्य होता है और दूसरा महापापाचार में लिप्त रहने पर भी आत्मा में
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