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________________ १२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/ प्र०७ ८. भट्टारकनामधारी धर्मगुरुओं ने पंचमकाल में ध्यान और तप को असम्भव घोषित करते हुए, मोक्षप्राप्ति का एक दूसरा भी सरल उपाय बतलाया है, जिससे दूसरे ही भव में गारण्टी से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। वह उपाय है सम्मेदशिखर की बारबार वन्दना करना। यह उपाय इसी सूर्यप्रकाश नामक ग्रन्थ में बतलाया गया है। उसकी जानकारी देते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार सूर्यप्रकाश-परीक्षा (पृष्ठ ८४-९०) में लिखते हैं क- "ध्यान और तप का करना वृथा-व्रतप्रकरण के बाद ग्रन्थ में 'सम्मेदाचल' नाम का एक प्रकरण दिया है और उसमें श्रीसम्मेदशिखर की यात्रा का अद्भुत माहात्म्य बतलाते हुए ध्यान और तप की बुरी तरह से अवगणना की गई है। 'श्मशान-भूमियों और पर्वतों की गुफादिकों में करोड़ पूर्व वर्ष पर्यन्त किये हुए ध्यान से भी अधिक फल सम्मेदशिखर के दर्शन से होता है' इतना ही नहीं कहा गया, बल्कि 'पंचमकाल में तप और ध्यान की सिद्धि नहीं होती, अतः सम्मेदशिखर की यात्रा ही सर्वसिद्धि को करनेवाली है' यहाँ तक भी कह डाला है। और इस तरह आजकल के लिये ध्यान और तप का करना बिलकुल ही वृथा ठहरा दिया है। दो कदम आगे चल कर तो स्पष्ट शब्दों में इन दोनों का निषेध ही कर दिया है और भव्यजनों के नाम यह आज्ञा जारी कर दी है कि 'तपों के समूह को और ध्यानों के समूह को मत करो, किन्तु जीवनभर बार-बार सम्मेदशिखर का दर्शन किया करो। उसी के एक मात्र पुण्य से दूसरे ही भव में निःसन्देह शिवपद की प्राप्ति होगी।' यथा कोटिपूर्वकृतं ध्यानं श्मशानाद्रिगुहादिषु। तदधिकं भवत्येव फलं तद्दर्शनाद् नृणाम्॥ १३॥ नैव सिद्धिः तपस्योच्चैः (!) ध्यानस्यैव कदाचन। तस्मिन् काले ह्यतो भूप ! सा यात्रा सर्वसिद्धिदा॥ १४॥ मा कुरुध्वं तपोवृन्दं भो भव्याः! ध्यानसंहतिम्। समं प्रत्येकवारं च आमृत्यु तस्य दर्शनम् ॥ १७॥ भजध्वं तेन पुण्येन केवलेन शिवास्पदे। यास्यथ नात्र सन्देहो द्वितीये हि भवेऽव्यये॥ १८॥ "यह सब कथन जैनधर्म की शिक्षा से कितना बाहर है, इसे बतलाने की जरूरत नहीं। सहृदय पाठक सहज ही में इसकी निःसारता का अनुभव कर सकते हैं। खेद है कि ग्रन्थकार ने इसे भी भगवान् के मुख से ही कहलाया है! उसे यह ध्यान नहीं रहा कि मैं इस ग्रन्थ में अन्यत्र कितनी ही बार इन दोनों के करने की प्रेरणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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