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अ०८ / प्र० ७
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / १२७
“पाठकजन ! देखा, कितना सस्ता और सरल यह उपाय भगवान् ने सब पापों से छूटने और मुक्ति की प्राप्ति का बतलाया है! पाप-क्षय का इससे अधिक सुगम उपाय आप को अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिला होगा । इस गुह्य रहस्य का ग्रन्थकार पर ही अवतार भगवान् की खास मेहरबानी का फल जान पड़ता है! अच्छा होता, यदि भगवान् दि० तेरहपंथियों और ढूँढियों को इस व्रत का फल पहले ही सुना देते, जिससे वे बेचारे सर्व पापों से मुक्त हो जाते और फिर भगवान् को उनके साथ लड़ने-झगड़ने तथा उनपर गालियों की वर्षा करने की जरूरत ही न रहती । शायद कोई तार्किक महाशय यहाँ यह कह बैठें कि चूँकि भगवान् को खास तौर से अपने अभिषेक पूजनादि के लिये उन्हें प्रेरित करना था, वे इस व्रत का फल उन्हें पहले ही कैसे सुना देते ? परन्तु तब तो उन्हें व्रतफल सुनने का ऐसा माहात्म्य बतलाना ही नहीं चाहिये था। इसे मालूम करके तो लोगों की प्रवृत्ति उस कर्मदहनव्रत के अनुष्ठान की भी नहीं रह सकती, जिसमें अनेक प्रकार से अपने अभिमत पंचामृताभिषेक, जिनचरणों पर गन्धलेपन और सचित्त द्रव्यों से पूजन की प्रेरणा अथवा पुष्टि की गई है, क्योंकि उसकी उत्कृष्टविधि का — और इसलिये अधिक से अधिक - फल तो अगले जन्म में विदेह क्षेत्र का सम्राट् होकर, जिनदीक्षा लेकर और अनेक तप तपकर मुक्ति का होना लिखा है, और इस व्रतफल के श्रवण से बिना किसी परिश्रम के ही सब पापों का नाश होकर उसी जन्म में मुक्ति हो जाती है। इससे व्रत करने की अपेक्षा उसका फल सुनना ही अच्छा रहा! फिर ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो सिद्धि के सरल से सरल एवं लघु मार्ग को छोड़कर कष्टकर और लम्बे मार्ग को अपनाए? ग्रन्थकार की इस मार्मिक शिक्षा और कर्मफल के नूतन आविष्कार पर तो लोगों को सारे धर्मकर्म को छोड़कर एक मात्र कर्मदहनव्रत के फल को ही सुन लेना चाहिये। बस, बेड़ा पार है। इससे सस्ता और सुगम उपाय दूसरा और कौन हो सकता है ?
" ग्रन्थ में एक स्थान पर उन मनुष्यों को, जो सारे जन्म पाप में ही मग्न रहते हैं, इसी व्रत के कारण शिवपद की प्राप्ति होना लिखा है
आजन्मपापमग्ना हि नराः यास्यन्ति निश्चयात् ।
अस्यैव कारणाद् भूप! शिवास्पदे च शाश्वते ॥ १२॥ पृ. २५४ ॥
मनुष्यों को भी व्रत की उत्कृष्ट विधि के जरूरत नहीं है। वे इस व्रत के फल को कर मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।" (सूर्यप्रकाश - परीक्षा / पृ. ७४-७८)।
" परन्तु हमारे खयाल से तो उक्त श्लोक नं० १७८ की मौजूदगी में, ऐसे महापापी अनुष्ठानरूप इस द्राविडी प्राणायाम की सुनकर सहज ही में सब पापों से छूट
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