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१२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ७
प्रकरण में आष्टाह्निक आदि व्रतों के नाम सामान्यरूप से अथवा कुछ विशेषणों के साथ देकर और उनके विधिपूर्वक अनुष्ठान का फल दो तीन भवों में मुक्ति का होना बतलाकर 'कर्मदहन' नाम के एक खास व्रत का विधान किया गया है। इस व्रत की उत्कृष्ट विधि में मूलोत्तर कर्मप्रकृतियों के संख्याप्रमाण १५६ प्रोषधोपवास एकान्तर से और निरारम्भ करने होते हैं, अर्थात् पहले दिन मध्याह्न के समय एक बार शुद्ध भोजन, दूसरे दिन निरारम्भ अनशन (उपवास) फिर तीसरे दिन एक बार भोजन और चौथे दिन अनशन यह क्रम रहता है, भोजन के दिन पंचामृतादि के अभिषेकपूर्वक तथा जिनचरणों में गन्धलेपनपूर्वक सचित्तादि द्रव्यों से पूजा की जाती है, प्रत्येक उपवास के दिन उस-उस कर्म प्रकृति के नामोल्लेखपूर्वक एक जाप्य १०८ संख्याप्रमाण जपा जाता है।११९ साथ ही, विकथादि के त्यागरूप कुछ संयम का भी अनुष्ठान किया जाता है । १२० यह सब बतलाने के बाद ग्रन्थ में इस व्रत के फल का वर्णन करते हुए लिखा है
कर्मदहन व्रतस्य फलं शृणु समाधिना । श्रवणाच्च यत्सर्वांहाः प्रलयं यान्ति देहिनाम् ॥ १७८ ॥
"इसमें भगवान् महावीर राजा श्रेणिक को कर्म- दहन - व्रत के फल को ध्यानपूर्वक सुनने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं कि - ' इस व्रत के फलश्रवण से देहधारियों के सब पाप प्रलय को प्राप्त हो जाते हैं।' यहाँ 'सर्वांहाः ' पद में प्रयुक्त हुए 'सर्व' शब्द की मर्यादा 'सर्वज्ञ' शब्द में प्रयुक्त हुए 'सर्व' शब्द की मर्याद से कुछ कम नहीं है । वह जैसे त्रिकालवर्ती अशेष पदार्थों को विषय करनेवाला कहा जाता है वैसे ही यह 'सर्व' शब्द भी भूत-भविष्यत् - वर्तमानकाल सम्बन्धी सब प्रकार के संपूर्ण पापों को अपना विषय करनेवाला समझना चाहिये। उन सब पापों का इस फलश्रवण से उपशम या क्षयोपशम होना ही नहीं कहा गया, बल्कि एकदम प्रलय (क्षय) हो जाना बतलाया गया है और इसलिये इस कथन का साफ फलितार्थ यह निकलता है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, असातावेदनीय, अशुभ नाम, अशुभ आयु, और अशुभगोत्र नाम की जो भी पापप्रकृतियाँ हैं वे सब इस व्रत के फलश्रवण-मात्र से क्षय को प्राप्त हो जाती हैं ! फिर तो मुक्ति की उसी जन्म में गारण्टी अथवा रजिस्टरी समझिये !
११९. “अनुवादक ने एक दिन के जाप्य का नमूना "ऊँ ह्रीं मतिज्ञानावरणकर्मनाशाय नमः” दिया है।" (लेखक) ।
१२०. " वह संयम विकथा, गृहारम्भ, स्त्रीसेवन, शृङ्गार, खट्वाशयन, शोक, वृथापर्यटन, अष्टमद, पैशुन्य, परनिन्दा, परस्त्रीनिरीक्षण, रागोद्रेकपूर्वकहास्य, रति, अरति, कुभाव, दुर्ध्यान, भोगाभिलाष, पत्रशाक और अशुद्ध दूध-दही- घृत के त्यागरूप कहा गया है। (श्लोक १६८ से १७१) ।" (लेखक) ।
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