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________________ अ०८/प्र०७ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / १२५ ___३. संयम और शौच के उपकरणभूत पिच्छी-कमण्डलु को स्वाँग (मुनि वेश की नकल) की सामग्री बना दिया। ४. गृहस्थों की आगमानुसार आचरण की स्वतन्त्रता का अपहरण कर उन्हें अपने आदेशानुसार आचरण के लिए विवश कर दिया। ५. गृहस्थों को शास्त्राध्ययन से वंचितकर केवल पूजा-हवन आदि में 'स्वाहा' बोलनेवाला तोता ही बनने दिया। ६. उन्हें मोक्षसाधक धर्म से विमुख कर लौकिक-फल-साधक धर्म के मायाजाल में फंसाया। भट्टारक स्वयं के श्रावकव्रतरहित होने के कारण गृहस्थों को श्रावकव्रत ग्रहण करने की प्रेरणा न देकर अपने अर्थोपार्जन के लिए तरह-तरह के लौकिक व्रतों (रविव्रत, रोहिणीव्रत, मुकुट-सप्तमीव्रत, आकाशपंचमीव्रत, सुगन्धदशमीव्रत, कोकिलापंचमीव्रत, चन्दनषष्ठीव्रत, नवग्रहविधान आदि) के अनुष्ठान एवं उद्यापन १८ की प्रेरणा देते थे, इष्टप्राप्ति और अनिष्टनिवारण के लिए मन्त्रतन्त्र कराने और मणिमुक्ता धारण करने के मायाजाल में फँसाते थे। इन व्रतों के अनुष्ठान में पंचामृत अभिषेक, सचित्तपूजा, स्त्रियों के द्वारा जिनप्रतिमा के अभिषेक आदि की अनिवार्यता बतलाते थे। ___७. भगवान् महावीर ने कर्मक्षय के लिए सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्षमार्ग प्ररूपित किया है। किन्तु भट्टारकनामधारी पंचमकालीन मिथ्या धर्मगुरुओं ने इसके विकल्प के रूप में कर्मदहन नामक व्रत के अनुष्ठान अथवा उसके श्रवणमात्र को कर्मक्षय के सरल उपाय के रूप में प्रस्तुत किया है। भट्टारकोपासक पं० नेमिचन्द्र द्वारा विक्रमसंवत् १९०९ (ई० सन् १८५२) में लिखे गये सूर्यप्रकाश नामक ग्रन्थ की परीक्षा करते हुए अपने सूर्यप्रकाश-परीक्षा (१९३४ ई०) नामक ग्रन्थ (पृ. ७४-७८) में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार सब पापों से छूटने का सस्ता उपाय शीर्षक के अन्तर्गत लिखते हैं "ग्रन्थ में एक व्रतप्रकरण दिया गया है, जिसका प्रारम्भ "पुनराह शृणु भूप! तेषां भाविसुखाप्तये" इन शब्दों से होता है, और उसके द्वारा भगवान् महावीर ने पंचमकाल के मानवों की सुखप्राप्ति के लिये राजा श्रेणिक को कुछ व्रतविधान सुनाया है। इस ११८. "वस्तुतः उद्यापनादि की ये सब बातें भट्टारकीय शासन से सम्बन्ध रखती हैं। भट्टारकों को उद्यापनों से बहुत कुछ प्राप्ति हो जाती थी और उनके अधिकृत मन्दिरों में बहुत सा सामान पहुँच जाता था, जिसके आधार पर वे खूब आनन्द के तार बजाते थे। इसीलिए उन्होंने अनेक व्रतों के साथ उद्यापन की बात को जोड़ दिया है।" (पं० जुगलकिशोर मुख्तार : सूर्यप्रकाशपरीक्षा / पृ.८२-८३)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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