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अन्तस्तत्त्व
[पन्द्रह] २.८. जीवतत्त्वप्रदीपिका का प्रमाण
३९४ २.९. चतुर्दश गुणस्थानों में ध्यानादि के स्वामित्व का कथन ३९५ २.१०. चौदह का एक साथ निर्देश अनावश्यक था २.११. प्रतिपादनशैली से गुणस्थानसिद्धान्त के पूर्वभाव की पुष्टि । ४०१
२.११.१.गुणस्थान-विवरण के बिना गुणस्थानाश्रित निरूपण ४०१
२.११.२.अन्तदीपकन्याय से अनुक्त गुणस्थानों का द्योतन २.१२. तत्त्वार्थसूत्र का सम्पूर्ण प्रतिपादन गुणस्थान-केन्द्रित २.१३. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-केन्द्रित निरूपण सर्वमान्य २.१४. तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान-अवधारणा के सुदृढ़ प्रमाण २.१५. तत्त्वार्थसूत्र की कर्मव्यवस्था से गुणस्थानव्यवस्था स्वतः सिद्ध
४०९ ३. विकासवादविरोधी अनेक हेतु
४११ ३.१. श्वेताम्बरागमों में गुणश्रेणिनिर्जरा का उल्लेख नहीं ३.२. तत्त्वार्थसूत्र के गुणश्रेणिनिर्जरासूत्र का स्रोत षट्खण्डागम ४१२ ३.३. भद्रबाहु-द्वितीय ही नियुक्तियों के कर्ता
४१४ _ विरोधी तर्कों का निरसन
४१५ ३.४. मोक्षमार्ग चतुर्दश गुणस्थानों का अविनाभावी ३.५. विकास का अर्थ : ऋषभादि में सम्यक्त्वादि की
अनुत्पत्ति मानना ४. गुणस्थानसिद्धान्त का कपोलकल्पित विकासक्रम
४२० ५. डॉक्टर सा० के मत में किञ्चित् परिवर्तन - परिवर्तित मत का निरसन
४२९ - पण्डित हीरालाल जी शास्त्री की भ्रान्ति
४३६ - उपसंहार
४३९ ६. सप्तभंगीविकासवाद
४४२ - निरसन
४४२ ६.१. भगवतीसूत्र में सातों भंगों की चर्चा ६.२. सप्तभंगी के विकास की परिस्थितियाँ महावीर के
ही युग में ६.३. बादरायण व्यास द्वारा सप्तभंगी की आलोचना
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